चित्रकला की विभिन्न शैलियां
पाल चित्र शैली
- बिहार में चित्रकला के विकास का स्पष्ट प्रभाव पालवंश के शासनकाल से मिलता है।
- इस युग में पांडुलिपियों के चित्रण केअतिरिक्त दीवारों पर चित्र बनाने के उदाहरण देखे जा सकते हैं।
- ऐसी चित्रित पांडुलिपियां ताड़ पत्र पर लिखीगयी हैं। इसकेसर्वश्रेष्ठ उदाहरण हैं- अष्टसहसरिक प्रज्ञापरमितऔर पंचरक्षा दोनों कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय के संग्रहालय में सुरक्षितहैं।
- पालयुगीनचित्रकला में बुद्ध के जीवन के दृश्यों के अतिरिक्त महायान परम्परा में पूजे जाने वाले विभिन्न बौद्ध देवी-देवताओं का चित्रण हुआ है।
- इन चित्रों को बनाने में कलाकारों की दक्षता साफ झलकती है और इन्हें संसार के चित्रित पांडुलिपियों के सुन्दरतम उदाहरणों में से एक कहा जा सकता है।
- चित्रकला का एक अन्य उदाहरण भित्तिचित्र के रूप में नालंदा जिला के सराय स्थल से प्राप्त हुआ है। ग्रेनाइट पत्थर से निर्मित एक बड़े चबूतरे के निचले भाग पर कुछ ज्यामितीय आकार, फूलों के आकार और मनुष्यों एवं पशुओं का चित्रण किया गया है। इन में हाथी, घोड़ा, नर्तकी, बोधिसत्व और जम्भला प्रमुख हैं। इन चित्रों की शैली पर अंजता और बाघ गुफा चित्रों की शैली का प्रभाव दृष्टिगोचर होता है।
पटना कलम चित्र शैली
- मुगल साम्राज्य के पतन के बाद चित्रकारों को सम्राट का प्रश्रय न मिलने के कारण चित्रकारों का पलायन अन्य क्षेत्रों में होने लगा। वहाँ उन्हें मुगल शासकों जैसा प्रश्रय तो नहीं मिला, किन्तु जीवन-यापनकी सुविधाएं तथा संरक्षणराज्यों की चित्रकला को विकसित एवं प्रोत्साहन करने हेतु अवश्य मिला।
- 1760 के दशकमें पलायित चित्रकारतत्कालीन राजधानी ‘पाटलिपुत्र‘ (आज के पटना) वापस आगए।
- चित्रकारों ने राजधानी के लोदी कटरा, मुगलपुरा, दीवान मोहल्ला, मच्छरहट्टा तथा नित्यानन्द का कुआं क्षेत्र में तथा कुछ चित्रकारों ने आरा तथा दानापुर में बसकर इसचित्र कला शैली का प्रादुर्भाव किया उसे ‘पटना शैली‘ अथवा ‘पटना कलम‘ कहते हैं।
- ‘पटना कलम‘ के चित्रकारों को अपनी चित्रकारी हेतु वे साधनतो उपलब्ध नहो सके, जो उन्हें दिल्ली दरबार में सुलभ थे।इसीलिए उन्होंने मुगलकालीन सुविधाओं जैसे, पशु-पक्षियों के बाल तथा पंख, खनिज रंग, स्वर्ण-वर्क तथा हाथी दंत आदि का प्रयोग त्यागकर न केवल साधनों, बल्कि चित्र – विषयों में भी आमूल परिवर्तन कर दिया।
- पटना कलम शैली स्वतंत्र रूप से पहली ऐसी कला शैली थी जिसने आम लोगों और उनकी जिंदगी को कैनवास में जगह दी।
- वाटर कलर पर आधारित इस शैली की शुरुआत करीब 1760 ई. के आसपास मुगल दरबार और ब्रिटिश दरबार में हुई।
- मुगल बादशाह अकबर के दरबार के दो कलाकारों नोहर और मनोहर ने इसकी शुरुआत की थी।
- बाद में उनके शिष्य पटना में आकर इस शैली में कई प्रयोग किए और आम लोगों की जीवन-शैली पर कलाकृतियां बनाई।
- इस शैली का तेजी से विकास हुआ और चारों ओर इसकी प्रसिद्धि फैल गई।अठारहवीं शताब्दी के मध्य में चित्रकला के तीन स्कूल थे मुगल, एंग्लो– इंडियन और पहाड़ी। लेकिन पटना कलम ने इन सबके बीच तेजी से जगह बना ली।
- पटना शैली बाद में इंडो–ब्रिटिश शैली के नाम से जानी जाने लगी। सामान्यतः इस शैली में चित्रकारों ने व्यक्ति विशेष, पर्व– त्यौहार, उत्सव तथा जीव जन्तुओं को महत्त्व दिया।
चित्रकला से संबंधित तथ्य
|
चित्रकला
|
विशेषता
|
पाल चित्रकला
|
पांडुलिपि चित्रण, दीवार पर चित्रण, अष्ट साहसरिक और पंचरक्षा पांडु, चित्रलिपि, बुद्ध के जीवन के लघु चित्र, तांत्रिक प्रभाव।
|
पटना कलम
|
मुगल और ब्रिटिश प्रभाव, कागज और हाथी दांत पर लघुचित्र, दैनिक जीवन के चित्र। प्रमुख चित्रकार – गुरसहाय लाल, झुमक लाल, शिवलाल, लालचंद, कन्हैया लाल, भैरवजी, सोना कुमारी, गोपाल लाल आदि।
|
मधुबनी चित्रकला
|
भित्ति चित्र तथा अरिपन, लोककला, स्त्रियों की महत्वपूर्ण भूमिका, दीवार, कपड़े तथा कागज पर चित्रकारी, प्राकृतिक रंगों का प्रयोग।
|
- इस शैली में ब्रश सेही तस्वीर बनाने और रंगने का काम किया गया है। अधिकांशतः गहरे भूरे. गहरे लाल, हल्का पीला और गहरे नीले रंगों का प्रयोग किया गया है।
- पटना कलम के महत्त्वपूर्ण चित्रकारों में पहला नाम सेवक राम (1770-1830) का है।इस शैली केअन्य चित्रकारों में हुलास लाल, जयराम दास, शिवदयाललाल आदि प्रमुख हैं। चूंकि इस शैली के अधिकांश चित्रकार पुरुष हैं, इसलिए इसे ‘पुरुषों की चित्र शैली‘ भी कहा जाताहै।
- मुगलोत्तर काल में पटना शैली में हाथी दांत की चित्रकारी फली फूली और काफी विख्यात हुई।
- लाल चंद्र और गोपाल चंद्र इसके दो प्रसिद्ध चित्रकार थे जिन्हें बनारस के महाराजा ईश्वरी नारायण सिंह ने अपने यहाँ जगह दी।
- ब्रिटिश काल के अंत तक यह शैली भी लगभग अंत के करीब पहुंच गई। श्यामलानंदऔर राधा मोहन प्रसाद इसी शैली के कलाकार थे।
- राधामोहन प्रसाद ने ‘पटनाआर्ट कॉलेज‘ की नींव रखी थी जो कई दश कों से देश में कला गतिविधियों का एक प्रमुख केन्द्र रहा है।
- ईश्वरी प्रसाद वर्मा भारत में पटना कलम शैली के अंतिम चित्रकार थे।
- वर्ष 1949 में ईश्वरी प्रसाद का देहांत हो गया और उनके साथ ही पटना कलम शैली भी खत्म हो गई। उनकी पचास से ज्यादा कलाकृतियां पटना आर्ट कॉलेज में देखी जा सकती हैं।
- पटना कलम में सर्वाधिक महत्वपूर्ण चित्र हैं- महादेव लाल द्वार निर्मित ‘गांधारी चित्र‘ माधोलाल द्वारा निर्मित ‘रागिनी तोड़ी पर आधारित चित्र‘ शिवलाल द्वारा निर्मित ‘रागिनी तोड़ी पर आधारित चित्र‘ यमुना प्रसाद द्वारा चित्रित बेगमों की शराबखोरी का चित्र‘ आदि।
मधुबनी चित्रशैली
- यह मूलरूप से मिथिलांचल की लोक चित्रकला शैली है।
- इस लोक कला के विकास में महिलाओं की महत्वपूर्ण भूमिका रही है।
- मधुबनी चित्र शैली का पहला साक्ष्य मैथिली कवि विद्यापति की रचना कीर्तिपताका में मिलता है।
- मधुबनी चित्रशैली के तीन प्रकारहैं-1. भित्ति चित्र अरिपन तथा 3. पट्टचित्र |
- भित्ति चित्रः भित्ति चित्र के तीन रूप हैं-
- गोसनी के घर की सजावटः गोसनी के घर की सजावट के चित्र धार्मिक महत्व के होते हैं। इस कला के विकास में ब्राह्मण तथा कायस्थ परिवारों का मुख्य योगदान है। धार्मिक चित्रण में देवी-देवताओं का चित्रण अधिक होता है। जैसे-दुर्गा, राधा-कृष्ण, सीता-राम, शिव-पार्वती, विष्णु-लक्ष्मी, दशावतार, सरस्वती आदि। देवताओं के ये चित्रण लौकिक परम्परा के द्योतक हैं।
- कोहबर घर की सजावटः इसके तहत कोहबर घर की सजावट उल्लेखनीय है। कोहबर घर के भीतर और बाहर बने चित्र कामुक प्रवृत्ति के होते हैं। कोहबर घर के बाहर रति एवं कामदेव के चित्र तथा अन्दर में पुरुष–नारी के जनन अंगों की आकृति बने होते हैं।
मधुबनी चित्रकला शैली के प्रतीक
|
प्रतीक
|
अर्थ
|
केला
|
मांसलता
|
मछली
|
कामोत्तेजना
|
सुग्गे
|
कामवाहक
|
बांस
|
वंश वृद्धि
|
सिंह
|
शक्ति
|
हाथी-घोड़े
|
ऐश्वर्य
|
हंस-मयूर
|
शांति
|
सूर्य-चन्द्र
|
दीर्घ आयु
|
- कोहबर घर के कोनिया की सजावट: इसके तहत कोहबर घर के कोनिया (कोणिया) की सजावट महत्वपूर्ण है, जिसमें कोहबर घर के चारों कोणों पर यक्षिणी के चित्र बनाए जाते हैं। साथ ही पेड़–पौधों एवं पशु–पक्षियों की चित्रकारी प्रतीकात्मक रूप में होती है, जैसे
- केला– मांसलता के प्रतीक के रूप में,
- मछली– कामोत्तेजना के प्रतीक के रूप में,
- सिंह– शक्ति के प्रतीक के रूप में,
- सुग्गा/तोता– कामवाहक के प्रतीक के रूप में,
- हाथी–घोड़ा– ऐश्वर्य के प्रतीक के रूप में,
- बांस– वंशवृद्धि के प्रतीक के रूप में,
- कमल का पत्ता–स्त्री प्रजननींद्रीय के प्रतीक के रूप में,
- हंस एवं मयूर– शान्ति के प्रतीक के रूप में,
- सूर्य एवं चन्द्रमा- दीर्घ जीवन के प्रतीक के रूप में।
- अरिपन (भूमिचित्रण): बंगाल में अल्पना एवं मिथिला में अरिपन के रूप में यह परम्परा महिलाओं द्वारा पीढ़ी दर पीढ़ी चलती रही है। यह आंगन या चौखट के सामने जमीन पर बनाए जाने वाले चित्र हैं, जो 18 पुराणों एवं अन्य शास्त्रों के सार तत्वों पर आधारित होते हैं। इन चित्रों को बनाने में अरवा चावल का पानी और उसे रंग में मिलाकर प्रयोग किया जाता है। इन चित्रों की पांच श्रेणियां हैं-
- मनुष्यों और पशु-पक्षियों के चित्र
- फूल, पेड़ और फलों के चित्र
- तांत्रिक प्रतीकों पर आधारित चित्र
- देवी-देवताओं के चित्र एवं
- स्वास्तिक दीप आदि के चित्र।
विभिन्न अवसरों से संबंधित प्रसंग में अरिपन के अलग-अलग रूप प्रचलित हैं, जो लोक-कथाओं की भांति विभिन्न पर्व, त्यौहारों, अनुष्ठानों, विवाह, यज्ञोपवीत एवं धार्मिक अवसरों से अभिन्न रूप से जुड़े हैं जैसे-
- तुलसी पूजा के अवसर परः इस अवसर पर अविवाहित लड़कियों के लिए बनाए गए अरिपनों में ज्यामितीय आकारों, विशेषकर त्रिकोणात्मक और आयताकार आकारों का अधिक प्रयोग होता है।
- विवाह और उत्सवों के अवसर परः इस अवसर पर बनाये जाने वाले अरिपनों में तरह-तरह की पत्तियों के आकार का अरिपन में सर्वाधिक उपयोग होता है।
- पट्टचित्रः मधुबनी चित्रकला में पट्टचित्रों की भी अपनी विशेषता है, जिसका विकास प्राचीन भारतीय चित्रकला एवं नेपाल की पट्टचित्रकला से हुआ है। पट्टचित्र मुख्यतः छोटे-छोटे कपड़े और कागज पर बनाए जाते हैं।
मधुबनी चित्रशैली की विशेषताएं
- मधुबनी शैली के चित्रों में चित्रित वस्तुओं को सांकेतिक स्वरूप दिया जाता है। जैसे-अगर किसी पक्षी का चित्र बनाना है तो उसका आकार ऐसा बनाया जाता है कि बस जान पड़े कि कोई पक्षी है। यदि किसी आदमी का चित्र बनाना है तो उसके शारीरिक सौन्दर्य एवं सौष्ठव पर ध्यान देने की अपेक्षा पुरुष अथवा स्त्री के व्यवसाय, गुण एवं दार्शनिक पक्षों को सूक्ष्मता के साथ दर्शाया जाता है।
- चित्र मुख्यतः दीवारों पर ही बनाए जाते हैं। मगर हाल में कपड़े और कागज पर भी चित्रांकन की प्रवृत्ति बढ़ी है। इसका मुख्य कारण व्यावसायिक दृष्टिकोण है।
- इस कला में चित्र अंगुलियों से या बांस की कूची से बनाए जाते हैं। चित्रों में लोक-कल्पना की ऊंची उड़ान, कला से गहरा भावात्मक लगाव और सुन्दर प्राकृतिक रंगों का प्रयोग विशेष आकर्षण प्रदान करता है।
- रंगों की विशिष्टता इस शैली का महत्वपूर्ण पक्ष है। अभी भी यह चित्रकला प्राकृतिक रंगों में कायम है। इसमें प्रयोग होने वाले प्रमुख रंग हैं- हरा, पीला, लाल, नीला, काला, केसरिया, नारंगी, बैंगनी आदि।
- प्राकृतिक रंगों के निर्माण में-
- काला रंग– काजल एवं जो जलाकर बनाया जाता है।
- पोला रंग चूना एवं बेर के पत्तों का दूध मिलाकर बनाया जाता है।
- नारंगी रंग– पलाश के फूलों से बनाया जाता है।
- लाल रंग– कुसुम के फूलों से अथवा शहतूत के फूलों से बनाया जाता है।
- हरा रंग- सीम के पत्तों से बनाया जाता है।
- सफेद रंग- चावल एवं उड़द की दाल से बनाया जाता है।
- चित्रण में रंगों का समायोजन उल्लेखनीय है। पीला रंग-धरती, उजला रंग-पानी, लाल रंग-आग, काला रंग-वायु एवं नीला रंग-आकाश के लिए प्रयुक्त होता है।
- इस चित्रशैली के चित्र वर्तमान में बिहार के विभिन्न रेलवे स्टेशनों के बाहरी और भीतरी दीवारों पर चित्रित है। इसके अतिरिक्त पटना शहर के मुख्य दौवारों और गंगा रिवर फ्रंट पर भी इस शैली के चित्रों को उकेरा गया है।
- मधुबनी चित्रकला को राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर ख्याति दिलाने में पूर्व केन्द्रीय मंत्री स्वर्गीय ललित नारायण मिश्र का प्रमुख योगदान है।
- इस शैली के चित्रकारों में लगभग 95% चित्रकारों की संख्या महिलाओं की है। इसीलिए इसे महिलाओं को विश्कारों कला कहा जाता है। फिर भी नरेन्द्र कुमार कर्ण, अरुण कुमार यादव तथा शिवन पासवान आदि चित्रकारों ने महिलाओं के क्षेत्र को चुनौती देने का सुप्रयास किया है।
- वर्तमान की बहुचर्चित तथा राज्यस्तरीय एवं राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्तकर्ता महिला चित्रकार हैं- भगवती देवी, महासुन्दरी देवी (पद्मश्री 2010), यमुना देवी, सुश्री दुर्गा, बौआ देवी, शाति देवी, गोदावरी दत्त, भूला देवी, भूमा देवी, हीरा देवी, मुद्रिका देवी, नीलू यादव, भारती दयाल, जानकी देवी, त्रिपुरा देवी, श्यामा देवी, चन्द्रकला देवी तथा कर्पूरी देवी इत्यादि।
- मधुबनी पेंटिंग्स की प्रसिद्ध चित्रकला स्वर्णजयन्ती जनता एक्सप्रेस रेलगाड़ी के डिब्बों में. राजधानी दिल्ली में संसद भवन के द्वार पर, पटना रेलवे स्टेशन पर, पटना गंगा रिवर फ्रंट तथा मधुबनी रेलवे स्टेशन की दीवारों पर अंकित है।
- मिथिला पेंटिंग के क्षेत्र में बौआ देवी को 2017 में पद्मश्री सम्मान से नवाजा गया है। बौआ देवी बिहार राज्य के मधुबनी जिले के जितवारपुर गांव के निवासी है।
- मधुबनी पेंटिंग के प्रसिद्ध कलाकार इल्वरी देवी को 2021 में पद्मश्री अवार्ड से सम्मानित किया गया है।
मंजूषा शैली
- बिहार के भागलपुर क्षेत्र (अंग) में सनई की लकड़ियों से बनी मंदिर सरीखी मंजूषा पर क्षेत्र में प्रचलित बिरुला–विषहरी की लोक कथाओं में वर्णित चित्रों को कृचियों द्वारा चित्रित किया जाता है।
- इस शैली में पात्रों का मात्र बाया भाग ही चित्रित किया जाता है। चक्रवर्ती देवी इस शैली की प्रमुख चित्रकार है।
- इस शैली के चित्रों को विक्रमशीला एक्सप्रेस रेलगाड़ी के डब्बों में चित्रित किया गया है।
जादोपटिया चित्रकला
- यह चित्रकला संथाल समाज के मिथक पर आधारित एक लोक शैली है जो भारत को प्राचीन चित्रकला परंपरा से प्रेरित है।
- जादोपटिया चित्रकला में जादों का अर्थ चित्रकार और पटिया का अर्थ कागज या कपड़ा का टुकड़ा होता है।
- इन चित्रों को बनाने वाला संथाली भाषा में जादो‘ कहलाता है। चित्रण की यह कला उनका वंशानुगत व्यवसाय है, लेकिन अब इसकी लोकप्रियता समाप्तप्राय है।
- यह चित्र सामान्यतः छोटे कपड़ों या कागज के टुकड़ों को जोड़कर बने पटों पर अकित किया जाता है।
- प्रत्येक पट 15 से 20 फीट चौड़ा होता है जिस पर चार से सोलह चित्र निर्मित किए जाते हैं। इस चित्रकला में मुख्यतः लाल, हरा, पीला, भूरा और काला रंग प्रयुक्त होता है।
थंका चित्रकला
- भंका चित्रशैली बिहार की चित्रशैली न होकर मूलतः तिब्बती चित्रशैली है। चूंकि बुद्ध की शैली की चित्रकला का उत्थान बिहार में हुआ था और उस समय कला के लिए उत्पन्न विचार यहाँ से विश्व के विभिन भागों में भेजे जाते थे। इसी कारण इस चित्र शैलो को बिहार की चित्र शैली कहा जाता है।
- राहुल सांकृत्यायन द्वारा संग्रहित थंका चित्रशैली के 109 चित्र‘ पटना संग्रहालय‘ के एक भाग में सुरक्षित हैं। जातक कथाओं, बुद्ध के धर्मोपदेशों, भारतीय आचार्यों एवं तिब्बती संतों के जीवन का अपना एक मुख्य वयं विषय बनाने वाली यह चित्रशैली पट एवं मंडल धार्मिक चित्रशैली से जुड़ी है।
- इन चित्रों में विषयों का वर्ण्य स्पर्श किया गया है- दिव्याला, अभिधर्मोपदेश, धर्मपाल, अंत:प्रकृति एवं मंडल। इन चित्रों में रंग संयोजन को अत्यधिक महत्वपूर्ण समझा जाता है।
सांझी कला शैली
- उत्तर प्रदेश के व्रज क्षेत्र की यह चित्रकला शैली पटना तथा उसके सीमावर्ती क्षेत्रों में लगभग 60 वर्षों से प्रचलित है।
- इस शैली को अल्पना, रंगोली एवं अरिपन के नाम से भी जाना जाता है।
- कला समीक्षक इसे कला शैलो न मानकर मात्र एक कला मानते हैं।
|