प्राचीन बिहार में महात्मा बुद्ध के काल से राजगीर एवं वैशाली जैसे नगरों में गायिकाएँ तथा नर्तकियों की उपस्थिति के प्रमाण प्राप्त होते हैं। इन्हें नगरशोभिनी भी कहा जाता था। वैशाली की राजनर्तकी आम्रपाली द्वारा महात्मा बुद्ध से दीक्षा लेने का प्रमाण ऐतिहासिक स्रोतों से मिलता है। बिहार के जनमानस में लोकनृत्यों का एक अपना ही महत्त्व है। यहाँ लोक संगीत एवं नृत्य के अनेक रूप प्रचलित हैं जिनका संबंध दैनिक जीवन के विभिन्न क्रियाकलापों से है। विवाहोत्सव हो अथवा अन्य मांगलिक अवसर या फिर मनोरंजन लोकनृत्यों का आकर्षण देखते ही बनता है।
- बिहार के लोकनृत्य में उत्तरी बिहार के विदेह क्षेत्र में रामलीला नाच, भगत नाच कीर्तनीया नाच आदि लोकनृत्य उल्लेखनीय हैं, जो महत्वपूर्ण काव्य रचनाओं पर आधारित धार्मिक महत्त्व के हैं।
- पारिवारिक उत्सवों पर ‘डोमकच’ नृत्य किया जाता है, जिसमें गायन और नृत्य का साथ-साथ प्रयोग होता है।
बिहार में प्रचलित लोकनृत्य
पवड़िया नृत्यः यह लोक नृत्य स्त्री वेश-भूषा में जन्मोत्सव पर पुरुषों द्वारा किया जाता है। इसमें पुरुष स्त्री वेश-भूषा में, घाघरा चोली पहनकर हाथों में ढोल, झांझ-मंजीरा लेकर सोहर – खेलोना आदि के गीत गा कर नृत्य करते हैं।
झिझीया नृत्यः यह नृत्य महिलाओं द्वारा किया जाता है। इस नृत्य में छिद्रित घड़ा (इसी को झिझीया कहा जाता है) में दीपक जलाकर महिलाएँ सिर पर घड़ा रखकर नृत्य करती हैं। नृत्य करने वाली महिलाएं राजा चित्रसेन व उनकी रानी के कथा प्रसंगों पर रचित गीत गा कर नृत्य करती हुई घेरे में घूमती हैं। महिलाओं द्वारा ताली वादन, पग चालन एवं थिरकन से नृत्य अत्यंत आकर्षक लगता है।
धोबिया नृत्य: बिहार के भोजपुर जिले में यह नृत्य विवाह व अन्य मांगलिक अवसरों पर धोबी समाज में सामूहिक नृत्य के रूप में आयोजित होता है। इसके नर्तक लोकवाद्यों की ताल पर श्रृंगार रस से ओत-प्रोत होकर गीतों को गा कर नृत्य प्रस्तुत करते हैं।
जोगीड़ा नृत्यः यह नृत्य होली के पर्व पर ग्रामीण क्षेत्रों में विशेष रूप से लोकप्रिय है। इस नृत्य के दौरान ग्रामीण युवक-युवतियां रंग-गुलाल लगाते हुए गाते हैं और नृत्य करते हैं। इस नृत्य में मौज-मस्ती का माहौल रहता है।
विद्यापति नृत्य: राज्य के पूर्णिया क्षेत्र के प्रमुख लोक नृत्य में मिथिला के महान कवि विद्यापति के पदों को गाते हुए तथा पदों में वर्णित भावों को प्रस्तुत करते हुए नृत्य करते हैं।
कठघोड़वा नृत्यः लकड़ी, बाँस और खपच्चियों से बने घोड़े के बीच नर्तक उसमें रंग-बिरंगी पोशाक पहनकर बीच में खड़ा हो जाता है एवं नृत्य करता है। यह नृत्य सामान्यत: वैवाहिक समारोह के अवसर पर किया जाता था। वर्तमान समय में इस नृत्य का प्रचलन समाप्त होता जा रहा है। यह नृत्य बिहार के अलावे उत्तर प्रदेश के पूर्वी भागों में भी प्रचलित है।
लौंडा नृत्यः लौंडा नृत्य विवाह एवं अन्य मांगलिक अवसरों पर लड़के द्वारा लड़की का स्वांग बनाकर किया जाता है। नृत्य के दौरान नर्तक अपनी भावभंगिमाओं के आधार पर दर्शकों को कुछ देने-लेने एवं छींटाकशी करने को बाध्य करते हैं। यह नृत्य भोजपुर, छपरा, सिवान, गोपालगंज आदि भोजपुरी भाषी जिलों में प्रसिद्ध है।
झरनी नृत्यः यह बिहार के मुसलमानों का लोकप्रिय नृत्य है। यह मुहर्रम के वक्त आयोजित किया जाता है। इस नृत्य में नर्तक शोक गीत गाते हैं और अपने अभिनय द्वारा शोकाभिव्यक्ति भी करते हैं।
करिया झूमर नृत्यः यह महिला प्रधान लोकनृत्य है, जो मिथिला क्षेत्र में काफी प्रचलित है। इस लोकप्रिय नृत्य का आयोजन महिलाओं द्वारा त्योहार और मांगलिक अवसरों पर लोकगीतों के साथ किया जाता है।
करमा नृत्यः यह नृत्य बिहार की जनजातियों में विशेष रूप से प्रचलित है। यह फसलों की बुआई – कटाई के अवसर पर कर्मदेवता को खुश करने हेतु सामूहिक रूप से किया जाता है। इस नृत्य में पुरुष – महिला नर्तक एक-दूसरे की कमर में हाथ डाले हुए रहते हैं। इसके अंतर्गत नर्तक झांझ -मंजीरा, बांसुरी, तोरही की राग-रागनियों के साथ गीत गाते गोल घेरे में घूमते हुए नृत्य करते हैं।
खेलाड़िन नृत्यः यह लोकनृत्य विवाह तथा अन्य मांगलिक अवसरों पर अतिथियों के मनोरंजन हेतु आयोजित किया जाता है। सामान्यतः यह नृत्य व्यावसायिक महिलाएं करती हैं। इस नृत्य की महिलाएं अपनी भावभंगिमाओं से अतिथियों को रिझाकर विशेष पुरस्कार या बख्शीश प्राप्त कर लेती हैं।
छऊ नृत्यः यह लोकनृत्य युद्ध से सम्बन्धित है, जिसमें नृत्य शारीरिक भावभंगिमाओं, ओजस्वी स्वरों तथा पगों की धीमी तीव्र गति द्वारा संचालित होता है। इस नृत्य की दो श्रेणियां हैं- प्रथम हथियार श्रेणी, जिसमें वीर रस की प्रधानता होती है और दूसरी कालीभंग श्रेणी, जिसमें श्रृंगार रस को प्रमुखता दी जाती है। इस लोकनृत्य में मुख्यतः पुरुष नर्तक ही भाग लेते हैं।