मौर्य काल में बिहार (323 ई.पू. से 185 ई.पू.)
मौर्य वंश
प्राचीन भारत का राजवंश जिसने 137 वर्षों तक भारत में राज किया। इसकी स्थापना का श्रेय चंद्रगुप्त मौर्य और उसके मंत्री चाणक्य (कौटिल्य) को दिया जाता है, जिन्होंने नन्द वंश के राजा घनानन्द को पराजित किया। चंद्रगुप्त मौर्य का जन्म 345 ई.पू. में हुआ और वह मगध की राजगद्दी पर 323 ई.पू. में बैठा। मौर्य साम्राज्य भारतवर्ष के पूर्व में मगध राज्य में गंगा नदी के मैदानों (आज का बिहार एवं बंगाल) से शुरू हुआ और अपने चरम विस्तार के समय लगभग संपूर्ण भारतीय उपमहाद्वीप पर अपना प्रभुत्व कायम किया। इसकी राजधानी पाटलिपुत्र (अब पटना शहर स्थित, कुम्हरार) थी।
- मौर्य राजवंश की जानकारी के प्रमुख ऐतिहासिक स्रोत हैं-कौटिल्य (चाणक्य) का अर्थशास्त्र, विशाखदत्त की मुद्राराक्षस, मेगास्थनीज की ‘इंडिका’, यूनानी लेखक जस्टिन के वृतांत तथा सम्राट अशोक के स्तंभलेख/शिलालेख।
- मगध के राजसिंहासन पर बैठकर चन्द्रगुप्त ने ऐसे साम्राज्य की नींव डाली जो सम्पूर्ण भारत में फैला था। इसके समय में मौर्य साम्राज्य, पश्चिमोत्तर में अफगानिस्तान और बलूचिस्तान तक फैला था।
- पुराणों के अनुसार चन्द्रगुप्त शूद्र जाति से था। लेकिन कुछ इतिहासकार उसे मोरिय कुल का क्षत्रिय भी मानते हैं।
- मुद्राराक्षस के समालोचक घुण्डिराज के अनुसार मुरा, जो नंदों की एक रानी थी, सम्भवतः चन्द्रगुप्त की माँ या दादी थी।
- बौद्ध ग्रंथ महावंश की टीका के अनुसार चंद्रगुप्त के पिता मोरिय नगर के प्रमुख थे।
चन्द्रगुप्त मौर्य (323 ई.पू. से 298 ई.पू. तक)
323 ई.पू. में सिकन्दर की मृत्यु के बाद सेल्यूकस उसका उत्तराधिकारी बना। सिकन्दर द्वारा जीता हुआ भू-भाग प्राप्त करने के लिए 305 ई.पू. में उसने भारत पर पुनः चढ़ाई की। चन्द्रगुप्त ने पश्चिमोत्तर भारत के यूनानी शासक सेल्यूकस निकेटर को पराजित किया। इस युद्ध के बाद दोनों में संधि हो गई। संधि के अनुसार चंद्रगुप्त मौर्य ने सेल्युकस को 500 हाथी प्रदान किया। जबकि सेल्यूकस ने अपनी पुत्री हेलना का विवाह चन्द्रगुप्त से करने के साथ-साथ एरिया (हेरात), अराकोसिया (कंधार/कन्हार), जेड्रोसिया (बलूचिस्तान मकरान) एवं पेरोपेमिसडाई (काबुल) नामक प्रांत भी चंद्रगुप्त मौर्य को दहेज स्वरूप दे दिया।
- चन्द्रगुप्त और सेल्यूकस के युद्ध का वर्णन एप्पियानस ने किया है। सेल्यूकस ने मेगास्थनीज को राजदूत के रूप में चन्द्रगुप्त मौर्य के दरबार में नियुक्त किया।
- पश्चिमोत्तर सीमाप्रान्त को सबसे पहले यूनानियों की गिरफ्त से मुक्त कराने के कारण चन्द्रगुप्त मौर्य को भारतीय इतिहास में मुक्तिदाता के रूप में जाना जाता है।
- मेगास्थनीज ने ‘इंडिका‘ नामक पुस्तक की रचना की। इस पुस्तक में भारतीय समाज तथा नगरीय संरचना का विवरण मिलता है।
- मेगास्थनीज ने भारतीय समाज को सात श्रेणियों (दार्शनिक, किसान, अहीर, कारीगर, सैनिक, निरीक्षक एवं सभासद) में विभाजित किया है।
- कौटिल्य के अर्थशास्त्र में राजनीतिक नीतियों पर प्रकाश डाला गया है।
- सर विलियम जोंस ने चन्द्रगुप्त मौर्य की पहचान सैड्रोकोटस के रूप में की।
- एरियन तथा प्लूटार्क ने चन्द्रगुप्त मौर्य को एंड्रोकोटस के रूप में वर्णित किया है।
- चन्द्रगुप्त के काल में हिंदूकुश पर्वत भारत की वैज्ञानिक सीमा थी, इसे यूनानी लेखकों ने इण्डियन काकेशस भी कहा है।
मेगास्थनीज द्वारा वर्णित जातियाँ
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1.
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ब्राह्मण तथा दार्शनिक
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कृषक वर्ग
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3.
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ग्वाले तथा आखेटक
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4.
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व्यापारी तथा श्रमजीवी कारीगर एवं शिल्पी
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5.
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योद्धा अथवा सैनिक
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6.
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निरीक्षक अथवा गुप्तचर
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7.
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मंत्री एवं परामर्शदाता सभासद
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- चन्द्रगुप्त मौर्य का गुरु एवं प्रधानमंत्री चाणक्य ने कौटिल्य नाम से राजव्यवस्था तथा प्रशासन पर आधारित पुस्तक अर्थशास्त्र की रचना की। यह भारतीय राजव्यवस्था पर अब तक की सबसे प्राचीनतम उपलब्ध पुस्तक है।
- चन्द्रगुप्त मौर्य ने पश्चिम भारत में सौराष्ट्र तक प्रदेश जीतकर प्रत्यक्ष शासन के अन्तर्गत शामिल किया।
- गिरनार अभिलेख (150 ई.पू.) के अनुसार इस प्रदेश में पुष्यगुप्त वैश्य चन्द्रगुप्त मौर्य का राज्यपाल था जिसने सुदर्शन झील का निर्माण कराया था।
- दक्षिण में चन्द्रगुप्त मौर्य ने उत्तरी कर्नाटक तक विजय प्राप्त की।
- बंगाल पर चन्द्रगुप्त की विजय की जानकारी महास्थान अभिलेख से मिलती है।
- चन्द्रगुप्त मौर्य के विशाल साम्राज्य में काबुल, हेरात, कन्धार, बलुचिस्तान, पंजाब, गंगा-यमुना का मैदान, बिहार, बंगाल, गुजरात तथा विन्ध्य और कश्मीर के भू-भाग सम्मिलित थे।
- चन्द्रगुप्त मौर्य ने अपना साम्राज्य उत्तर पश्चिम में ईरान से लेकर पूर्व में बंगाल तथा उत्तर में कश्मीर से लेकर दक्षिण में उत्तरी कर्नाटक तक विस्तृत किया था।
- जैन लेखों के अनुसार चन्द्रगुप्त मौर्य के शासनकाल के अंत में मगध में 12 वर्षों का भीषण अकाल पड़ा था।
- सर्वप्रथम दुर्भिक्ष (अकाल) का जानकारी देने वाला अभिलेख सौहगौरा अभिलेख है। इस अभिलेख में संकट काल में उपयोग हेतु खाद्यान्न सुरक्षित रखने का उल्लेख है।
- अन्तिम समय में चन्द्रगुप्त मौर्य जैन मुनि भद्रबाहु के साथ श्रवणबेलगोला (कर्नाटक) चला गया जहाँ 298 ईपू में उपवास द्वारा अपना शरीर त्याग दिया जिसे जैन ग्रंथों में संलेखना कहा गया है।
बिन्दुसार (298 ई.पू. से 272 ई.पू.)
- बिन्दुसार चन्द्रगुप्त मौर्य का पुत्र व उत्तराधिकारी था जिसे वायुपुराण में मद्रसार और जैन साहित्य में सिंहसेन कहा गया है। यूनानी लेखक ने इसे अमित्रोचेट्स (अमित्रघात) कहा है।
- जैन ग्रन्थों के अनुसार बिन्दुसार की माता दुर्धरा थी। थेरवाद परम्परा के अनुसार बिन्दुसार ब्राह्मण धर्म का अनुयायी था। जबकि दिव्यावदान के अनुसार वह आजीवक सम्प्रदाय का अनुयायी था।
- बिन्दुसार के दरबार में सीरिया के राजा एटियोकस ने डायमेकस नामक राजदूत भेजा था।
- एथीनियस के अनुसार बिन्दुसार ने सीरिया के शासक एण्टियोकस से मदिरा, सूखे अंजीर एवं एक दार्शनिक भेजने की प्रार्थना की थी।
- मिस्र के राजा टॉलेमी द्वितीय के काल में डाइनोसियस नामक राजदूत बिन्दुसार की राज्यसभा में आया था।
- प्रशासन के क्षेत्र में बिन्दुसार ने अपने पिता का ही अनुसरण किया। प्रांतों में उपराजा के रूप में कुमार नियुक्त किए।
बिन्दुसार को प्राप्त उपाधि
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ग्रंथ
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उपाधि
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यूनानी लेखों में
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अमित्रोचेट्स
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संस्कृत ग्रन्थ में
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अमित्रघात
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वायुपुराण में
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मद्रसार
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जैन ग्रन्थ में
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सिंहसेन
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- दिव्यावदान के अनुसार अशोक अवंती का उपराजा था और बिन्दुसार के समय में तक्षशिला प्रान्त में दो विद्रोह हुए जिसका दमन करने के लिए पहली बार अशोक को तथा दूसरी बार सुसीम को भेजा गया था।
- बिन्दुसार की सभा में 500 सदस्यों वाली मन्त्रिपरिषद् थी जिसका प्रधान खल्लाटक था। बिन्दुसार ने 26 वर्षों तक राज किया और अंततः 272 ई.पू. में उसकी मृत्यु हो गयी।
चाणक्य
- चाणक्य कौटिल्य एवं विष्णुगुप्त के नाम से भी जाना जाता है। वह चन्द्रगुप्त मौर्य का राजनीतिक गुरु व प्रधानमंत्री था। वह एक विद्वान राजनीतिज्ञ था।
- चाणक्य तक्षशिला के कुठिल नामक ब्राह्मण कुल में पैदा हुआ था तथा तक्षशिला के शिक्षा केन्द्र का प्रमुख स्नातक व आचार्य था। लेकिन चाणक्य के जीवन का अधिकांश समय मगध साम्राज्य के राजनीतिक गलियारे में गुजरा।
- एक बार मगध के राजा नंद ने अपने यज्ञशाला में चाणक्य के रंगवर्ण को लेकर उसे अपमानित किया, जिससे क्रोध में आकर उसने नंद वंश को समूल नष्ट करने की प्रतिज्ञा कर ली और राजा नंद के धुर विरोधी चंद्रगुप्त मौर्य से मिलकर नंद वंश का विनाश किया।
- चन्द्रगुप्त मौर्य जब विशाल मगध साम्राज्य का एकछत्र सम्राट बना तब कौटिल्य उसके प्रधानमंत्री एवं प्रधान पुरोहित के पद पर आसीन हुआ।
- जैन ग्रंथों के अनुसार चन्द्रगुप्त की मृत्यु के बाद उसका पुत्र बिन्दुसार सिंहासन पर बैठा तो उसके काल में भी कुछ समय तक कौटिल्य प्रधानमंत्री बना रहा।
- अर्थशास्त्र मौर्य काल की रचना है, जिसमें मूलतः चन्द्रगुप्त मौर्य के प्रधानमंत्री कौटिल्य के विचार स्वयं उसी के द्वारा प्रस्तुत किए गए हैं।
- चाणक्य को भारत का मैकियावेली भी कहा गया है।
- कौटिल्य (चाणक्य) रचित अर्थशास्व मौर्यवंशीय राजशासन का प्राचीनतम विकिपीडिया है।
- मूल ग्रंथ (अर्थशास्त्र) को चौथी शताब्दी ई.पू. की रचना मानी जा सकती है।
- चाणक्य के अर्थशास्त्र में 15 अधिकरण/अध्याय तथा 180 प्रकरण हैं। इस ग्रंथ में श्लोकों की संख्या 4000 बताई गई है।
- कालांतर में अर्थशास्त्र में अन्य लेखकों द्वारा कुछ अंश जोड़े गए, जिससे मूल ग्रंथ का स्वरूप परिवर्तित हो गया।
कौटिल्य का सप्तांग सिद्धांत
कौटिल्य/चाणक्य ने इस सिद्धान्त में राज्य के सात अंगों का वर्णन किया है। कौटिल्य ने राज्य के सभी अंगों की तुलना शरीर के अंगों से की है। कौटिल्य का मानना था कि जिस तरह मानव शरीर का अपना महत्व है, उसके सारे अंग मिलकर शरीर को उपयोगी और काम के योग्य बनाते हैं, उसी तरह राज्य के कुछ मूलभूत अंग (सिद्धांत) हैं जो उसे संचालन और उसकी रक्षा के लिए बहुत ही महत्वपूर्ण हैं।
- राजा या स्वामी: कौटिल्य ने राजा को राज्य का केंद्र व अभिन्न अंग माना है तथा उन्होनें राजा की तुलना शीर्ष (सर्वोपरि) से की है। उसका मानना है कि राजा को दूरदर्शी, आत्मसंयमी, कुलीन, स्वस्थ तथा बौद्धिक गुणों से संपन्न होना चाहिए। वह राजा को कल्याणकारी तथा जनता के प्रति उत्तरदायी होने की सलाह देता है, क्योंकि उसके अनुसार राजा कर्तव्यों से बँधा होता है। कौटिल्य के अनुसार राजा को सर्वोपरि होने के बावजूद भी उसे निरंकुश शक्तियाँ नहीं देना चाहिए।
- अमात्य या मंत्री: कौटिल्य ने अमात्य और मंत्री दोनों की तुलना ‘आँख’ से की है। उसके अनुसार अमात्य तथा राजा एक ही गाड़ी के दो पहिये हैं। अमात्य उसी व्यक्ति को चुना जाना चाहिए जो अपनी जिम्मेदारियों को सँभाल सके तथा राजा के कार्यों में उसके सहयोगी की भूमिका निभा सके।
- जनपद: कौटिल्य ने इसकी तुलना ‘पैर’ से की है। जनपद का अर्थ है ‘जनयुक्त भूमि’ अर्थात् जनसंख्या तथा भूभाग दोनों को जनपद माना है। कौटिल्य ने दस गाँवों के समूह में ‘संग्रहण’ दो सौ गाँवों के समूह के बीच ‘सार्वत्रिक’, चार सौ गाँवों के समूह के बीच एक ‘द्रोणमुख’ तथा आठ सौ गाँवों में एक ‘स्थानीय’ अधिकारी की नियुक्ति की बात कही है।
- दुर्ग: कौटिल्य ने दुर्ग की तुलना ‘बाँहों’ या ‘भुजाओं’ से की है। कौटिल्य ने चार प्रकार के दुगों की चर्चा की है:-
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- औदिक दुर्ग- जिसके चारों ओर पानी हो।
- पार्वत दुर्ग- जिसके चारों ओर चट्टानें हों।
- धान्वन दुर्ग- जिसके चारों ओर ऊसर भूमि हो।
- वन दुर्ग- जिसके चारों ओर वन तथा जंगल हो।
5. कोष: इसकी तुलना कौटिल्य ने ‘मुख’ से ‘ से की है। उन्होंने कोष को राज्य का मुख्य अंग इसलिए माना है क्योंकि कोष से ही कोई राज्य वृद्धि करता है तथा शक्तिशाली बने रहने के लिए कोष के द्वारा ही अपनी सेना का भरण- पोषण करता है। उसने कोष में वृद्धि का मार्ग करारोपण को बताया है जिसमें प्रजा को अनाज का छठा भाग, व्यापार का दसवाँ भाग तथा पशुधन के लाभ का पचासवाँ भाग राजा को कर के रूप में अदा करना चाहिए।
- दंड या सेना: कौटिल्य ने सेना की तुलना मस्तिष्क‘ से की है। कौटिल्य ने सेना के चार प्रकार बताए हैं- हस्ति सेना, अश्व सेना. रथ सेना तथा पैदल सेना। उनके अनुसार सेना ऐसी होनी चाहिए जो साहसी हो, बलशाली हो तथा जिसके हर सैनिक के हृदय में देशप्रेम हो तथा बीरगति को प्राप्त हो जाने पर जिसके परिवार को उस पर अभिमान हो।
- मित्र: मित्र को कौटिल्य ने ‘कान’ कहा है। उसके अनुसार राज्य की उन्नति के लिए तथा विपत्ति के समय सहायता के लिए राज्य को मित्रों की आवश्यकता होती है।
कौटिल्य का मंडल सिद्धांत
कौटिल्य ने अपने अर्थशास्त्र के छठे अधिकरण में मंडल सिद्धांत का वर्णन किया है। कौटिल्य का मंडल (देशों का समूह) सिद्धांत भौगोलिक आधार पर यह दर्शाता है कि किस प्रकार विजय की इच्छा रखने वाले राज्य के पड़ोसी देश (राज्य) उसके मित्र या शत्रु हो सकते हैं। इस सिद्धांत के अनुसार मंडल के केन्द्र में एक ऐसा राजा होता है, जो अन्य राज्यों को जीतने का इच्छुक है, उसे ‘विजीगीषु कहा गया है।
- शक्तिशाली राज्यः प्राचीन काल में भारत में अनेक छोटे-छोटे राज्यों का अस्तित्व था। शक्तिशाली राजा युद्ध द्वारा अपने साम्राज्य का विस्तार करते थे। राज्य कई बार सुरक्षा की दृष्टि से अन्य राज्यों से समझौता भी करते थे। कौटिल्य के अनुसार युद्ध व विजय द्वारा अपने साम्राज्य का विस्तार करने वाले राजा को अपने शत्रुओं की अपेक्षा मित्रों की संख्या बढ़ानी चाहिए, ताकि शत्रुओं पर नियंत्रण रखा जा सके।
- निर्बल राज्यः निर्बल राज्यों को शक्तिशाली पड़ोसी राज्यों से सतर्क रहना चाहिए। उन्हें समान स्तर वाले राज्यों के साथ मिलकर शक्तिशाली राज्यों की विस्तार नीति से बचने हेतु एकजुट या ‘मण्डल’ बनाना चाहिए।‘विजीगीषु‘ के मार्ग में आने वाला सबसे पहला राज्य ‘अरिं (शत्रु) तथा शत्रु से लगा हुआ राज्य ‘शत्रु का शत्रु’ होता है, अतः वह विजीगीषु का मित्र होता है। कौटिल्य ने ‘ मध्यमं व’ उदासीनं राज्यों का भी वर्णन किया है, जो सामर्थ्य होते हुए भी रणनीति में भाग नहीं लेते।
- कौटिल्य के 12 मंडल सिद्धांत – विजिगीषु, अरि, मित्र, अरि-मित्र, मित्र-मित्र, अरि-मित्र-मित्र, पाष्ण्णिग्राह, आंक्रद, पाणिग्राहासार, आक्रन्दासार, मध्यम तथा उदासीन देश।
अशोक (272 ई.पू. से 232 ई.पू.)
मौर्य राजवंश के चक्रवर्ती सम्राट अशोक ने अखंड भारत’ पर करीब 40 वर्षों तक राज किया तथा उसका साम्राज्य उत्तर में हिन्दुकुश की श्रेणियों से लेकर दक्षिण में मैसूर तक तथा पूर्व में बांग्लादेश से पश्चिम में अफगानिस्तान-ईरान तक पहुंच गया था। सम्राट अशोक का साम्राज्य आज का सम्पूर्ण भारत, पाकिस्तान, अफगानिस्तान, नेपाल, बांग्लादेश, भूटान, म्यांमार के अधिकांश भूभाग पर था। यह विशाल साम्राज्य उस समय से आज तक का सबसे बड़ा भारतीय साम्राज्य रहा है। चक्रवर्ती सम्राट अशोक का स्थान विश्व के सभी महान एवं शक्तिशाली सम्राटों एवं राजाओं की पक्तियों में हमेशा शीर्ष स्थान पर ही रहा है। भारत में सर्वप्रथम अशोक को ही चक्रवर्ती सम्राट कहा गया है, जिसका अर्थ है-‘ सम्राटों का सम्राट’। अशोक को अपने विस्तृत साम्राज्य से बेहतर एक कुशल प्रशासक तथा बौद्ध धर्म के प्रचारक के रूप में जाना जाता है। सम्राट अशोक ने सम्पूर्ण भारतीय उपमहाद्वीप एवं कई एशियाई देशों में भी बौद्ध धर्म का प्रचार-प्रसार किया। सम्राट अशोक से संदर्भित कई स्तूप एवं स्तम्भ-शिलालेख प्राचीन भारत के ऐतिहासिक स्रोत बनकर वर्तमान भारत को गौरव प्रदान कर रहे हैं। कला और रूपभोगमा का अद्भुत नमूना वाला अशोक का ‘चतुसिंहस्तंभ भारत का राष्ट्रीय प्रतीक’ के रूप में देश का सिरमौर बना हुआ है। अशोक प्रेम, सहिष्णुता, सत्य, अहिंसा एवं प्रजा-हितैषी के रूप में आज भी अनुकरणीय बने हुए हैं। नोट: बिंदुसार की मृत्यु के पश्चात् उत्तराधिकार के लिए संघर्ष प्रारम्भ हो गया जो लगभग चार वर्षों (272 ई.पू. से 268 ई.पू.) तक चला। अंतत: 268 ई.पू. में अशोक सम्राट बना।
- अशोक के राजा बनने में बिंदुसार के एक मंत्री राधागुप्त की सहायता प्राप्त हुई थी। हालाँकि इस उत्तराधिकार संघर्ष का कोई स्वतंत्र प्रमाण प्राप्त नहीं हुआ है।
- जैन अनुश्रुति के अनुसार अशोक ने बिन्दुसार की इच्छा के विरुद्ध सिंहासन पर अधिकार कर लिया था जबकि महाबोधिवंश तथा इतिहासकार तारानाथ के अनुसार सत्ता प्राप्ति के लिए हुए गृह युद्ध में उसने अपने भाइयों की हत्या करके ही साम्राज्य प्राप्त किया था।
- सिंहली अनुश्रुतियों के अनुसार अशोक ने 99 भाइयों की हत्या करके राजसिंहासन प्राप्त किया था।
- राजगद्दी पर बैठने के समय अशोक अवंती का राज्यपाल था।
- अभिलेखों में उसे ‘देवानामपिय’ एवं राजा उपाधियों से सम्बोधित किया गया है।
- मास्की तथा गुर्जरा के अभिलेखों में उसका नाम अशोक तथा पुराणों में उसे अशोक वर्धन कहा गया है।
- भाबू स्तम्भलेख में अशोक ने स्वयं को मगध का सम्राट बताया है।
- दिव्यावदान में अशोक की माता का नाम सुभद्रांगी है जो चम्पा के एक ब्राह्मण की पुत्री थी।
- सिंहली अनुश्रुतियों के अनुसार उज्जयिनी जाते समय अशोक विदिशा में रुका जहाँ उसने श्रेष्ठी की पुत्री देवी से विवाह किया जिससे महेन्द्र और संघमित्रा का जन्म हुआ।
- दिव्यावदान में उसकी एक पत्नी का नाम तिष्यरक्षिता मिलता है। उसके लेख (कौशाम्बी अभिलेख) में उसकी एक ही पत्नी कारुवाकि का उल्लेख मिलता है जो तीवर की माता थी।
- अशोक ने अपने राज्याभिषेक के 8वें वर्ष 261 ई.पू. में कलिंग पर आक्रमण किया था।
- तेरहवें शिलालेख के अनुसार कलिंग युद्ध में एक लाख 50 हजार व्यक्ति बन्दी बनाकर निर्वासित कर दिए गए तथा एक लाख लोगों की हत्या कर दी गई।
- कलिंग युद्ध (खासकर युद्ध में मारे गए महिलाओं और बच्चों के शव देखकर) ने अशोक के हृदय में महान परिवर्तन ला दिया। इसके उपरांत उसने अहिंसावादी बौद्ध धर्म को अपना धर्म स्वीकार किया और बौद्ध धर्म के प्रचार-प्रसार में अपना राज-काज को भी लगा दिया।
- सिंहली अनुश्रुतियों, दीपवंश एवं महावंश के अनुसार अशोक को अपने शासन के चौदहवें वर्ष में निग्रोथ नामक भिक्षु द्वारा बौद्ध धर्म की दीक्षा दी गई थी तत्पश्चात् मोगलीपुत्ततिस्स के प्रभाव से वह पूर्णतः बौद्ध हो गया था।
- दिव्यावदान के अनुसार अशोक को बौद्ध धर्म में दीक्षित करने का श्रेय उपगुप्त नामक बौद्ध भिक्षु को जाता है।
- अशोक ने अपने शासनकाल के 10वें वर्ष में सर्वप्रथम बुद्ध की ज्ञान स्थली बोधगया की यात्रा की और बोधिवृक्ष के नीचे बौद्ध वज्रासन (बुद्ध का मुद्रासन) की स्थापना कर एक चैत्य (बौद्ध मंदिर) का निर्माण कराया था जहां परवर्ती शुंग शासकों ने वज्रासन के चारों ओर वेदिका का निर्माण करा दिया। तदुपरांत चंद्रगुप्त द्वितीय के नवरत्न अमर सिंह ने यहां एक विशाल बौद्ध मंदिर का निर्माण कराया।
- अपने राज्याभिषेक के बीसवें वर्ष में अशोक ने बुद्ध की जन्म स्थली लुम्बिनी की यात्रा की उसके बाद लुम्बिनी ग्राम को धार्मिक कर से मुक्त घोषित कर दिया तथा भू-राजस्व की दर को 1/6 से घटाकर 1/8 कर दिया।
- अशोक ने धम्म की जो परिभाषा दी है वह महाराहुलोवाद सुत्त से ली गई है।
- अशोक के शासनकाल में ही पाटलिपुत्र में तृतीय बौद्ध संगीति का आयोजन किया गया, जिसकी अध्यक्षता मोग्गलिपुत्ततिस्स ने की। इसी में अभिधम्मपिटक की रचना हुई और बौद्ध भिक्षु विभिन्न देशों में भेजे गए जिनमें अशोक के पुत्र महेन्द्र एवं पुत्री संघमित्रा को श्रीलंका भेजा गया।
- कल्हण की राजतरंगिणी के अनुसार अशोक ने कश्मीर में वितस्ता नदी (झेलम) के किनारे श्रीनगर नामक शहर की स्थापना की थी।
- अभिलेखों द्वारा प्रजा को संदेश देने की प्रेरणा अशोक को सम्भवतः ईरानी शासक डेरियस से मिली थी।
- मौर्य काल में काशी, बंग, पुण्डू, कलिंग एवं मालवा सूती वस्त्र के लिए प्रसिद्ध थे।
- मौर्यकाल में कार्षापण चांदी एवं तांबे का, सुवर्ण सोने का, माषक/भाषक और काकणी तांबे का सिक्का प्रचलित था।
- पाटलिपुत्र के दीदारगंज से प्राप्त यक्षिणी की प्रतिमा मौर्यकला का उत्कृष्ट उदाहरण है। A पटना के कुम्हरार से से लकड़ी के बने मौर्यकालीन राजप्रासाद (महल) के भी साक्ष्य प्राप्त हुए हैं।
अशोक द्वारा धर्म प्रचार के साधन
(i) धर्मयात्राओं का प्रारम्भ, (ii) राजकीय पदाधिकारियों की नियुक्ति (iii) धर्म महामात्रों की नियुक्ति, (iv) दिव्य रूपों का प्रदर्शन, (v) धर्म श्रवण एवं धर्मोपदेश की व्यवस्था, (vi) लोकचरित के कार्य, (vii) धर्मलिपियों को खुदवाना, (viii) विदेशों में धर्म प्रचारक भेजना।
- अशोक ने बौद्ध धर्म के प्रचार का प्रारम्भ धर्मयात्राओं से किया।
- कलिंग युद्ध के बाद आमोद-प्रमोद की यात्राओं पर पाबन्दी लगा दी।
- नेपाल की तराई में स्थित निगलीवा में उसने कनकमुनि के स्तूप की मरम्मत करवाई।
- बौद्ध धर्म के प्रचार के लिए अपने साम्राज्य के उच्च पदाधिकारियों को नियुक्त किया। स्तम्भ लेख तीन और सात के अनुसार उसने व्युष्ट, रज्जुक, प्रादेशिक तथा युक्त नामक पदाधिकारियों को जनता के बीच जाकर धर्म प्रचार करने और उपदेश देने का आदेश दिया।
- अभिषेक के 13वें वर्ष के बाद बौद्ध धर्म प्रचार हेतु पदाधिकारियों का एक नया वर्ग बनाया जिसे धम्ममहामात्र कहा गया था। इसका कार्य विभिन्न धार्मिक सम्प्रदायों के बीच भेदभाव को मिटाकर धार्मिक एकता स्थापित करना था।
- धम्म को लोकप्रिय बनाने के लिए अशोक ने मानव व पशु जाति के कल्याण हेतु पशु-पक्षियों की हत्या पर प्रतिबन्ध लगा दिया था। राज्य तथा विदेशी राज्यों में भी मानव तथा पशु के लिए अलग चिकित्सालय की व्यवस्था की।
- अशोक के महान पुण्य का कार्य एवं स्वर्ग की प्राप्ति का उपदेश बौद्ध ग्रन्थ संयुक्त निकाय में दिया गया है।
- अशोक ने दूर-दूर तक बौद्ध धर्म के प्रचार हेतु दूतों, प्रचारकों को विदेशों में भेजा। अपने दूसरे तथा 13वें शिलालेख में उसने उन देशों का नाम लिखवाया जहां दूत भेजे गये थे।
- बौद्ध धर्म को अंतर्राष्ट्रीय धर्म बनाने का श्रेय सम्राट अशोक को ही जाता है।
- एशिया के कई देशों में अशोक द्वारा बौद्ध धर्म का प्रचार-प्रसार किया गया। उसने अपने पुत्र महेन्द्र और पुत्री संघमित्रा को श्रीलंका भेजा था।
अशोक द्वारा भेजे गए बौद्ध धर्म प्रचारक
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धर्म प्रचारक
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स्थान
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मज्झन्तिक
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कश्मीर-गांधार
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मन्झिम
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हिमालय
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सोन व उत्तरा
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सुवर्णभूमि
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रक्षित
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उत्तरी कनारा
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धर्म-रक्षित
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पश्चिमी भारत
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महारक्षित
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यवनराष्ट्र
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महाधर्म रक्षित
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महाराष्ट्र
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महादेव
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मैसूर
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महेन्द्र एवं संघमित्रा
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श्रीलंका
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नोट: 12वीं से 20वीं शताब्दी तक भारत में बौद्ध धर्म के अनुयायियों की संख्या बहुत ही कम हो गई। लेकिन, सामाजिक न्याय के पुरोधा एवं दलितों के नेता डॉ. भीमराव आंबेडकर ने 20वीं सदी के मध्य में 14 अक्टूबर, 1956 को अशोक विजयादशमी (धम्मचक्रप्रवर्तन दिवस) के दिन नागपुर में अपनी पत्नी के साथ पहले स्वयं बौद्ध धर्म की दीक्षा लेकर बौद्ध बने, इसके बाद सिर्फ दो दिन (15-16 अक्टूबर, 1956) में अपने 10 लाख से अधिक हिंदू दलित समर्थकों को बौद्ध धर्म की दीक्षा दिला कर बौद्ध धर्म के अनुयायियों की संख्या में भारी वृद्धि कर दी जो विश्व का सबसे बड़ा धार्मिक रूपांतरण धर्मांतरण माना जाता है। अशोक के बाद बौद्ध धर्म को सबसे ज्यादा विस्तार देने वाले आंबेडकर दूसरे व्यक्ति हैं।
अशोक के अभिलेख
- अशोक के छठे स्तम्भ लेख से यह स्पष्ट होता है कि उसने अपने धर्मलेख राज्याभिषेक के 12 वर्ष पश्चात् उत्कीर्ण करवाने शुरू किए।
- अशोक के शिलालेख आधुनिक भारत, नेपाल, बांगलादेश, पाकिस्तान, अफगानिस्तान में जगह-जगह मिले हैं। ये सभी शिलालेख ऐतिहासिक एवं पुरातात्विक साक्ष्य के पुख्ता प्रमाण हैं।
- अशोक के शिलालेखों में ब्राह्मी, खरोष्ठी, ग्रीक एवं अरमाइक लिपि का प्रयोग हुआ है। ग्रीक एवं आरमाइक लिपि का अभिलेख अफगानिस्तान से, खरोष्ठी लिपि का अभिलेख उत्तर पश्चिम पाकिस्तान से और शेष भारत से ब्राह्मी लिपि के अभिलेख मिले हैं।
- अशोक ने राष्ट्रीय भाषा के रूप में प्राकृत को एवं लिपि के रूप में ब्राह्मी को अपनाया।
- उत्कीर्ण अभिलेखों के अध्ययन को एपीग्राफी कहते हैं।
- अशोक के रामपुरवा अभिलेख बिहार राज्य के पश्चिमी चम्पारण जिले में स्थित है, जबकि प्रयाग स्तम्भ लेख पहले कौशाम्बी में स्थित था जो बाद में मुगल सम्राट अकबर द्वारा इलाहाबाद के किले में रखवाया गया।
- सम्राट अशोक की राजकीय घोषणाएँ (राजाज्ञा/शासनादेश) जिन स्तम्भों पर उत्कीर्ण हैं उन्हें लघु स्तम्भ लेख कहा जाता है। अशोक के समस्त शिलालेख लघु एवं दीर्घ स्तम्भ लेख ब्राह्मी लिपि में उत्कीर्ण हैं।
- अभी तक अशोक के 40 अभिलेख प्राप्त हो चुके हैं। सर्वप्रथम 1837 ई. में जेम्स प्रिंसेप नामक विद्वान ने अशोक के अभिलेख को पढ़ने में सफलता हासिल की थी, जबकि सर्वप्रथम 1750 ई. में टीफेन्थैलर ने दिल्ली में अशोक स्तम्भ का पता लगाया था।
- अशोक के अभिलेखों को तीन भागों में बांटा गया है- 1. शिलालेख 2. स्तम्भलेख 3. गुहालेख
- अशोक का सबसे बड़ा अथवा लंबा 13वां अभिलेख माना जाता है, जो ओडिशा के धौली में है और सबसे छोटा रूम्मिनदेई लुम्बिनी अभिलेख है।
- रूम्मिनदेई अभिलेख से मौर्यकालीन कर नीति की जानकारी मिलती है।
अशोक के स्तम्भ लेख एवं उनमें वर्णित विषय
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शिलालेख
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वर्णित विषय
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प्रथम
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अहिंसा पर बल, पशुबलि की निंदा एवं समारोह पर प्रतिबंध का उल्लेख है।
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दूसरा
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समाज कल्याण हेतु कार्य, मनुष्यों एवं पशुओं के लिए चिकित्सा की व्यवस्था एवं पड़ोसी राज्य चोल- पाण्ड्य- सत्यपुत्र एवं केरलपुत्र का वर्णन।
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तीसरा
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इसमें राजकीय अधिकारियों युक्त, राज्जुक तथा प्रादेशिकों को यह आदेश दिया गया कि वे हर पाँचवें वर्ष राज्य के दौरा पर जाएं। ब्राह्मणों, मित्रों तथा श्रमणों से सदा उदारतापूर्ण व्यवहार करें।
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चौथा
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भेरीघोष (युद्ध) की जगह धम्मघोष (शांति) की घोषणा की गई है। पशु हत्या को बहुत हद तक रोके जाने का दावा है।
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पाँचवाँ
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शासन के 13वें वर्ष धम्ममाहामात्र नामक अधिकारी की नियुक्ति की चर्चा है।
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छठवाँ
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इसमें आत्म-नियंत्रण की शिक्षा दी गई है। अधिकारी को हर समय और कहीं भी सेवाभाव से तत्पर रहना बताया गया है।
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सातवाँ
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सभी संप्रदायों के लिए सहिष्णुता का भाव रखने पर बल दिया गया है।
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आठवाँ
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अशोक के धर्म (तीर्थ) यात्राओं का उल्लेख। अशोक के बोधगया की यात्रा।
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नवाँ
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सच्ची भेंट एवं सच्चे शिष्टाचार का उल्लेख। धम्म में सभी दासों एवं नौकरों के प्रति दयाभाव रखना।
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दसवाँ
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इसमें ख्याति एवं गौरव की निंदा की गयी है तथा धम्मकीर्ति की श्रेष्ठता पर बल
दिया गया है।
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ग्यारहवाँ
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इसमें धर्म के वरदान को सर्वोत्कृष्ट एवं धम्म की व्याख्या की गई है।
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बारहवाँ
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सभी प्रकार के विचारों का सम्मान, विभिन्न सम्प्रदायों के बीच समन्वय एवं महिला महामात्रों की नियुक्ति।
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तेरहवाँ
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कलिंग युद्ध का वर्णन, युद्ध में एक लाख लोगों के मरने एवं अशोक के हृदय परिवर्तन की बात के साथ ही पड़ोसी राजाओं का वर्णन है।
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चौदहवाँ
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प्रजा को स्वतंत्र धार्मिक जीवन जीने के लिए प्रेरित करना। इसमें अपने प्रजा के प्रति पितृवत प्रेमभाव को अपनाने पर बल दिया गया है।
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अशोक के गुहा एवं स्तम्भ लेख
- दक्षिण बिहार के गया जिले में स्थित बराबर पहाड़ी में तीन गुफाओं की दीवारों पर अशोक के लेख प्राप्त हुए हैं। इन सभी की भाषा प्राकृत तथा लिपि ब्राह्मी है। केवल दो अभिलेखों शाहबाजगढ़ी तथा मानसेहरा की लिपि ब्राह्मी न होकर खरोष्ठी है। यह लिपि दायीं से बायीं ओर लिखी जाती है।
- तक्षशिला से आरमाइक लिपि में लिखा गया एक भग्न अभिलेख तथा कन्धार के पास शेर-ए-कुना नामक स्थान से यूनानी तथा आरमाइक द्विभाषीय अभिलेख प्राप्त हुआ है।
अशोक के लघु स्तम्भ लेख
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लघु स्तम्भ लेख
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स्थान
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टोपरा
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उत्तर प्रदेश
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मेरठ
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उत्तर प्रदेश
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प्रयाग
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उत्तर प्रदेश
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लौरिया अरेराज
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बिहार (पू. चम्पारण)
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लौरिया नंदनगढ़
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बिहार (प. चम्पारण)
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रामपुरवा
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बिहार (प. चम्पारण)
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- अशोक के स्तम्भ लेखों की संख्या सात है जो छह विभिन्न स्थानों से पाषाण स्तम्भों पर उत्कीर्ण पाए गए हैं। इन स्थानों के नाम हैं-
दिल्ली –टोपरा यह स्तम्भ लेख प्रारंभ में उत्तर प्रदेश के सहारनपुर जिले में पाया गया था। यह मध्ययुगीन सुल्तान फिरोजशाह तुगलक द्वारा दिल्ली लाया गया। इस पर अशोक के सातों अभिलेख उत्कीर्ण हैं।
दिल्ली-मेरठ– यह स्तम्भ लेख भी पहले मेरठ में था जो बाद में फिरोजशाह द्वारा दिल्ली लाया गया।
लौरिया अरेराज एवं लौरिया नन्दनगढ़- यह स्तम्भ लेख बिहार राज्य के चम्पारण जिले में है। इस पर बैल की आकृति है।
नोटः बसहा लघुशिलालेख-यह शिलालेख बिहार के कैमूर पहाड़ी में चांद क्षेत्र के बसहा में अवस्थित है, जो स्थानिय लोगों में मठमुरिया और मुरमुरिया के नाम से प्रसिद्ध है। भारतीय पुरातत्व विभाग ने इसकी खोज 2009 में की थी। इतिहासकारों का मानना है कि सम्राट अशोक ने बौद्ध धम्म/धर्म प्राचार के दौरान 256वीं रात यहीं गुजारी थी।
अशोक के परवर्ती शासक
- मगध साम्राज्य के महान मौर्य सम्राट अशोक की मृत्यु के उपरान्त अगले पाँच दशक तक उसके निर्बल उत्तराधिकारी शासन संचालित करते रहे।
- जैन, बौद्ध तथा ब्राह्मण ग्रन्थों में अशोक के उत्तराधिकारी के शासन के बारे में परस्पर विरोधी विचार पाये जाते हैं।
- पुराणों में अशोक के बाद 1 या 10 शासकों की चर्चा है, जबकि दिव्यावदान के अनुसार 6 शासकों ने अशोक के बाद शासन किया।
- अशोक की मृत्यु के बाद मौर्य साम्राज्य पश्चिमी और पूर्वी भाग में बँट गया।
दिव्यावदान के अनुसार अशोक के उत्तराधिकारी
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1. दशरथ
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2. सम्प्रति
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3. शालिशूक
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4. देववर्मन
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5. शतधनुष
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6. वृहद्रथ
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- पश्चिमी भाग पर कुणाल शासन करता था, जबकि पूर्वी भाग पर सम्प्रति का शासन था।
- 170 ई पू. तक पश्चिमी भाग पर बैक्ट्रियाई यूनानियों का पूर्ण अधिकार हो गया था लेकिन पूर्वी भाग पर दशरथ का राज्य कायम था।
- मौर्य साम्राज्य का अंतिम सम्राट वृहद्रथ था। 185 ई. पू. में वृहद्रथ की हत्या उसके ब्राह्मण सेनापति पुष्यमित्र शुंग ने कर दी और शुंग राजवंश की स्थापना की।
बराबर एवं नागार्जुनी गुफाएं
बराबर गुफाएं
- सम्राट अशोक ने आजीवक सम्प्रदाय के भिक्षुओं के वर्षावास के लिए नागार्जुन पहाड़ी एवं बराबर पहाड़ी की एकाश्मक चट्टानों को कटवाकर दोनों में शैलकृत गुफाओं का निर्माण करवाया था।
- बिहार में गया के निकट बराबर की गुफाएं, चट्टानों को काटकर बनायी गई सबसे पुरानी गुफाएं हैं। इनमें से ज्यादातर का संबंध मौर्यकाल (323-185 ई.पू.) से है। कुछ गुफाओं में अशोक के शिलालेखों को देखा जा सकता है। ये गुफाएं बिहार के गया से करीब 24 किलोमीटर (16 मील) दूर वर्तमान में जहानाबाद जिला में स्थित हैं।
- मौर्यकाल की ये गुफाएं जहानाबाद जिला में स्थित बराबर (चार गुफाएं) और नागार्जुनी (तीन गुफाएं) की जुड़वां पहाड़ियों में स्थित हैं- बराबर की गुफाओं से6 किमी. की दूरी पर स्थित नागार्जुनी पहाड़ी की गुफाओं को ही नागार्जुनी गुफाएं कहा गया है।
- चट्टानों को काटकर बनाए गए ये कक्ष अशोक (272 ई.पू. से 232 ई.पू.) और उसके पौत्र दशरथ द्वारा निर्मित, तीसरी सदी ईसा पूर्व से संबंधित हैं। यद्यपि वे स्वयं बौद्ध थे लेकिन एक धार्मिक सहिष्णुता की नीति के तहत उन्होंने विभिन्न संप्रदायों को भी पनपने का अवसर दिया।
- इन गुफाओं का उपयोग आजीवक संप्रदाय के संन्यासियों द्वारा किया जाता था। इस सम्प्रदाय की स्थापना मक्खलि गोशाल द्वारा की गयी थी। इसके अलावा इस स्थान पर चट्टानों से निर्मित कई बौद्ध और हिन्दू मूर्तियां भी पायी गई हैं।
- बराबर पहाड़ी में चार गुफाएं शामिल हैं- कर्ण चौपर, लोमश ऋषि, सुदामा और विश्व झोपड़ी। इनमें सुदामा और लोमश ऋषि गुफाएं चट्टानों को काटकर बनायी जाने वाली गुफाओं की वास्तुकला के सबसे आरम्भिक उदाहरण हैं। इनमें मौर्य काल में निर्मित वास्तुकला संबंधी विवरण मौजूद हैं। इसके कुछ सदी बाद में गुफा वास्तुकला महाराष्ट्र में अजंता और कार्ले की गुफाओं में पाए जाने वाले विशाल बौद्ध चैत्य के रूप में प्रतिबिम्बित होता है।
- लोमश/लोमा ऋषि गुफा: मेहराब की तरह के आकार वाली ऋषि गुफा एकाश्मक चट्टानों को काट कर और तराश कर बनाई गई हैं। गुफा के प्रवेश द्वार पर दो शिलालेख मिलते हैं जिनमें गुप्तोत्तर काल के मौखरी शासकों शार्दुलवर्मन एवं उसके पुत्र अनंतवर्मन का उल्लेख है। एक दूसरे ब्राह्मी अभिलेख में इस जगह को गोरथगिरी नाम से उल्लेख किया गया है।
- सुदामा गुफा: यह गुफा 261 ई.पू. में मौर्य सम्राट अशोक द्वारा बौद्ध भिक्षुओं को समर्पित की गई थी। इसमें एक आयताकार मण्डप के साथ वृत्तीय मेहराबदार कक्ष बना हुआ है।
- कर्ण चौपर गुफा: यह पॉलिश युक्त सतहों के साथ एक एकल आयताकार कमरे के रूप में बना हुआ है जिसमें ऐसे शिलालेख मौजूद हैं जो संभवतः 245 ई.पू. के हैं। कुछ इतिहासकार इसे महाभारतकालीन भी मानते हैं।
- विश्व झोपड़ी गुफा: इसमें दो आयताकार कमरे मौजूद हैं जो चट्टानों को काटकर बनाए गए हैं। आजीवकों को समर्पित इस गुफा में अशोक कालीन शिलालेख मिलते हैं। अपने शासन के 12वें वर्ष में इसका निर्माण सम्राट अशोक ने करवाया था।
नागार्जुनी गुफाएं
नागार्जुनी पहाड़ी की गुफाएं बराबर गुफाओं से छोटी एवं नई हैं, ये तीन गुफाएं इस प्रकार हैं-
- गोपिका गुफा: यह नागार्जुनी पहाड़ी की तीन महत्वपूर्ण गुफाओं में सबसे बड़ी गुफा है। शिलालेख के अनुसार इन्हें लगभग 232 ई.पू. में दशरथ द्वारा आजीवक संप्रदाय के अनुयायियों को समर्पित किया गया था। इस गुफा की छत मेहराबदार है।
- वापियाका गुफा: यह भी अशोक के पौत्र दशरथ द्वारा ही निर्मित है जिसे आजीवक संप्रदाय के अनुयायियों को समर्पित किया गया था।
- वेदाथिक गुफा: यह वापियाका गुफा के निकट पश्चिम में स्थित है। यह भी आजीवक संप्रदाय के अनुयायियों को समर्पित है।
मौयकालीन प्रशासन
- पाटलिपुत्र के प्रशासन का वर्णन मेगास्थनीज कृत ‘इंडिका’ में है। मेगास्थनीज ने पाटलिपुत्र को ‘पोलिब्रोथा’ कहा है।
- भारत में सर्वप्रथम मौर्य शासनकाल में ही राष्ट्रीय राजनीतिक एकता स्थापित हुई थी।
- मौर्य प्रशासन में सत्ता का सुदृढ़ केन्द्रीयकरण था परन्तु राजा निरकुंश नहीं होता था।
- मौर्य काल में अपेक्षाकृत गणतंत्र का ह्रास हुआ और राजतंत्रात्मक व्यवस्था सुदृढ़ हुई।
केन्द्रीय प्रशासन
- अर्थशास्त्र में शीर्षस्थ अधिकारियों को तीर्थ कहा गया है, इनकी संख्या 18 थी। अधिकतर स्थानों पर इन्हें महामात्य की संज्ञा दी गई है। सबसे महत्वपूर्ण तीर्थ या महामात्य मंत्री और पुरोहित थे।
सैन्य व्यवस्था
- सैन्य व्यवस्था छह समितियों में विभक्त थी। प्रत्येक समिति में पाँच सैन्य विशेषज्ञ होते थे। पैदल सेना, अश्व सेना, गज सेना, रथ सेना तथा नौ सेना की व्यवस्था थी।
- सैनिक प्रबन्ध का सर्वोच्च अधिकारी अन्तपाल कहलाता था। यह सीमान्त क्षेत्रों का भी व्यवस्थापक होता था।
मौर्य राजधानी
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प्रान्त
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राजधानी
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वर्तमान स्थिति
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प्राच्य
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पाटलिपुत्र
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बिहार
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उत्तरापथ
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तक्षशिला
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पाकिस्तान
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दक्षिणापथ
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सुवर्णगिरि
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कर्नाटक
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अवन्ति राष्ट्र
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उज्जयिनी
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मध्य प्रदेश
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कलिंग
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तोसली
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ओडिशा
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- मेगास्थनीज के अनुसार चन्द्रगुप्त मौर्य की सेना- छह लाख पैदल, पचास हजार अश्वारोही, नौ हजार हाथी तथा आठ सौ रथों से सुसज्जित थी।
प्रान्तीय प्रशासन
- चन्द्रगुप्त मौर्य ने शासन संचालन को सुचारू रूप से चलाने के लिए अपने साम्राज्य को चार प्रान्तों में विभाजित किया था। प्रांतों को चक्र भी कहा जाता था।
- इन प्रान्तों का शासन सम्राट के प्रतिनिधि द्वारा संचालित होता था। सम्राट अशोक के काल में प्रान्तों की संख्या पाँच हो गई थी। प्रान्तों (चक्रों) का प्रशासन राजवंशीय कुमार नामक पदाधिकारियों द्वारा होता था।
- कुमारामात्य की सहायता के लिए प्रत्येक प्रान्त में महामात्र नामक अधिकारी होते थे। शीर्ष पर साम्राज्य का केन्द्रीय प्रभाग तत्पश्चात् प्रांत आहार (विषय) में विभक्त था।
- ग्राम प्रशासन की सबसे छोटी इकाई थी।
- आहार विषयपति के अधीन होता था। जिले के प्रशासनिक अधिकारी स्थानिक था।
- गोप दस गाँव की व्यवस्था करता था। मेगस्थनीज के अनुसार मौर्य शासन का नगरीय प्रशासन छह समितियों में विभक्त था।
नगरीय प्रशासन
- नगर में अनुशासन बनाए रखने के लिए। तथा अपराधों पर नियंत्रण रखने हेतु व्यवस्था थी जिसे रक्षित कहा जाता था।
- यूनानी स्रोतों से ज्ञात होता है कि नगर प्रशासन में तीन प्रकार के अधिकारी होते थे- एग्रोनोमोई (जिलाधिकारी), एण्टीनोमोई (नगर आयुक्त) एवं सैन्य अधिकारी।
मौर्यकालीन नगरीय प्रशासन की समितियां
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समिति
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विशेष
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प्रथम समिति
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उद्योग शिल्पों का निरीक्षण
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द्वितीय समिति
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विदेशियों की देखरेख
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तृतीय समिति
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जनगणना
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चतुर्थ समिति
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व्यापार वाणिज्य की व्यवस्था
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पंचम समिति
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विक्रय की व्यवस्था, निरीक्षण
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षष्ठम् समिति
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बिक्री कर व्यवस्था
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मौर्यकालीन मंत्रिपरिषद्
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1.
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मंत्री
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प्रधानमंत्री
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10.
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प्रदेष्टि
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कमिश्नर
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2.
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पुरोहित
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धर्म एवं दान विभाग का प्रधान
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11.
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पौर
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नगर का कोतवाल
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3.
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सेनापति
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सैन्य विभाग का प्रधान
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12.
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व्यावहारिक
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प्रमुख न्यायाधीश
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4.
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युवराज
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राजपुत्र
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13.
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नायक
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नगर रक्षा का अध्यक्ष
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5.
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दौवारिक
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राजकीय द्वार रक्षक
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14.
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कमांन्तिक
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उद्योगों एवं कारखानों का अध्यक्ष
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6.
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अंतर्वेशिक
|
अन्तःपुर का अध्यक्ष
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15.
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दण्डपाल
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सेना का सामान एकत्र करने वाला
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7.
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समाहर्ता
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राजस्व का संग्रहकर्ता
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16.
|
दुर्गपाल
|
दुर्ग रक्षक
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8.
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सन्निधाता
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राजकीय कोष का अध्यक्ष
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17.
|
अंतपाल
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सीमावर्ती दुर्गों का रक्षक
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9.
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प्रशास्ता
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कारागार का अध्यक्ष
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|
|
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मौर्यकालीन विभागाध्यक्ष
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1.
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अक्षपटलाध्यक्ष
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लेखा विभाग का प्रधान
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8.
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पत्तनाध्यक्ष
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बंदरगाहों के विभागों का अध्यक्ष
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2.
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सोताध्यक्ष
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कृषि विभाग का प्रधान
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9.
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अन्तपाल
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सीमा प्रदेश की देखभाल करने वाला
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3.
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अकाराध्यक्ष
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खनिज विभाग का प्रधान
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10.
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पीतवाध्यक्ष
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बाट एवं माप विभाग का अध्यक्ष
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4.
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लक्षणाध्यक्ष
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टकसाल का अध्यक्ष
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11.
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सूत्राध्यक्ष
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कताई-बुनाई विभाग का अध्यक्ष
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5.
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लवणाध्यक्ष
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नमक से संबंधित विभाग
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12.
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सूनाध्यक्ष
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बूचड़खाने का अध्यक्ष
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6.
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विविताध्यक्ष
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चारागाह का अध्यक्ष
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13.
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गणिकाध्यक्ष
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वेश्याओं के विभाग का अध्यक्ष
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7.
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नवाध्यक्ष
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नावों एवं जहाजों का अध्यक्ष
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14.
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बंधगाराध्यक्ष
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जेलखाने का अध्यक्ष
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मौर्य साम्राज्य का बौद्ध धर्म के साथ संबंध
- मौर्य साम्राज्य का बौद्ध धर्म के साथ अन्योनाश्रय संबंध रहा है। सम्राट अशोक ने कलिंग युद्ध के बाद अहिंसा और शांति के अनुगामी बौद्ध धर्म से प्रभावित होकर ‘ बुद्धम् शरणम् गच्छामि’,‘ धम्मं शरणम् गच्छामि’,‘ संघम् शरणम् गच्छामि’ एवं ‘ जियो और जीने दो’ जैसे लोक कल्याणकारी आदर्शों को अपने राजधर्म में शामिल किया।S
- बौद्ध धर्म अपनाने के बाद अशोक ने बौद्ध नीतियों एवं उनके आदशों के प्रचार-प्रसार के लिए भारत के बाहर भी कई देशों में अपने ‘धम्ममहामात्रो’ को भेजा। यहां तक कि इसके प्रचार के लिए अपने पुत्र महेन्द्र एवं पुत्री संघमित्रा को भी लगाया।
- सारनाथ में संरक्षित ‘सारनाथ सिंहस्तंभ’ में चतुसिंह के नीचे भगवान बुद्ध के जीवन से संबधित चार पशुओं हाथी, घोड़ा, बैल तथा सिंह/ शेर की आकृतियां उत्कीर्ण हैं। इसे सम्राट अशोक ने भगवान बुद्ध द्वारा ‘धम्मचक्रप्रवर्तन’ यानी प्रथम उपदेश देने की ऐतिहासिक घटना की स्मृति में बनवाया था।
- कई बौद्ध स्थापत्यों में सांची, भरहुत, सारनाथ जैसे प्रमुख स्तूपों के अलावे अनेक बौद्ध विहारों का निर्माण मौर्य राजाओं द्वारा किया गया था।
- बौद्ध भिक्षुओं के वर्षावास अथवा विश्राम स्थल (विहार) के रूप में बराबर एवं नागार्जुनी पहाड़ियों में कई शैलकृत गुफाओं का भी निर्माण किया गया था।
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