गुप्त काल में बिहार
मौर्यकाल के पतनोपरांत दीर्घकाल तक भारतवर्ष किसी एक वंश के शासन के अधीन नहीं आ सका। इस कमी को गुप्त शासकों ने पूरा किया और लगभग संपूर्ण भारत को एक राजनैतिक व्यवस्था के अधीन कर विज्ञान, गणित, वाणिज्य, खगोल विज्ञान, साहित्य, धर्म और दर्शन के क्षेत्र में चतुर्दिक विकास किया। फलतः भारत के इतिहास में गुप्तकाल को स्वर्ण काल कहा गया।
- गुप्त साम्राज्य का उदय तीसरी सदी के अंत में प्रयाग के निकट कौशाम्बी में हुआ। गुप्त वंश का प्रारम्भिक राज्य आधुनिक उत्तर प्रदेश और बिहार में था। गुप्त कुषाणों के सामंत थे।
- मौर्य वंश के पतन के पश्चात् नष्ट हुई राजनीतिक एकता को पुनर्स्थापित करने का श्रेय गुप्त वंश को है।
- गुप्त साम्राज्य की नींव तीसरी शताब्दी के उतरार्ध में पड़ी तथा उत्थान चौथी शताब्दी के पूर्वाध में हुआ। इस वंश के शासकों का विवरण निम्न प्रकार हैं-
- श्रीगुप्त – प्रयाग प्रशस्ति के अनुसार, गुप्त वंश की स्थापना 275 ई. में श्रीगुप्त ने की थी। श्रीगुप्त ने अयोध्या तथा उसके पूर्व में सारनाथ क्षेत्र पर 240 ई. से 280 ई. तक शासन किया। श्रीगुप्त के पश्चात् 280 ई. से 319 ई. तक इसके पुत्र घटोत्कच ने शासन किया।
- घटोत्कच (280 ई. से 319 ई.): घटोत्कच श्रीगुप्त का पुत्र था। यह 280 ई. से 319 ई. तक गुप्त साम्राज्य का शासक बना रहा। इसने महाराजा की उपाधि धारण की थी। प्रभावती गुप्त के पूना एवं रिद्धपुर ताम्रपत्र अभिलेखों में घटोत्कच को गुप्तवंश का प्रथम राजा बताया गया है।
- चन्द्रगुप्त प्रथम (319 ई. से 335 ई.): चन्द्रगुप्त गुप्त वंशावली में सबसे पहला स्वतंत्र शासक था।
- पुराणों तथा प्रयाग प्रशस्ति से चन्द्रगुप्त प्रथम के राज्य के विस्तार के विषय में जानकारी मिलती है।
- कुमार देवी के साथ विवाह-सम्बन्ध स्थापित करके चन्द्रगुप्त प्रथम ने वैशाली राज्य प्राप्त किया।
- चन्द्रगुप्त प्रथम ने कौशाम्बी तथा कौशल के राज्यों को जीतकर अपने राज्य में मिलाया तथा साम्राज्य की राजधानी पाटलिपुत्र में स्थापित की।
- गुप्तवंश में सर्वप्रथम चन्द्रगुप्त प्रथम ने ही सोने के सिक्के चलाया था। इन सिक्कों पर एक तरफ चन्द्रगुप्त एवं कुमारदेवी (राजा-रानी) के चित्र बने हुए हैं, जबकि दूसरी तरफ लक्ष्मी की आकृति है।
समुद्रगुप्त (335 ई. से 375 ई.)
- समुद्रगुप्त का जन्म लिच्छवि राजकुमारी कुमारदेवी के गर्भ से हुआ था। इन्हें परक्रमांक कहा गया है।
- समुद्रगुप्त का शासनकाल राजनैतिक दृष्टि से गुप्त साम्राज्य के उत्कर्ष का काल माना जाता है।
- हरिषेण समुद्रगुप्त का मंत्री एवं दरबारी कवि था।
- हरिषेण द्वारा रचित प्रयाग प्रशस्ति से समुद्रगुप्त के राज्यारोहण, विजय तथा साम्राज्य विस्तार के संबंध में जानकारी प्राप्त होती है।
- समुद्रगुप्त ने महाराजाधिराज की उपाधि धारण की थी।
- समुद्रगुप्त के लगातार विजय अभियानों को देखते हुए बी.ए. स्मिथ ने उसे ‘भारत का नेपोलियन’ की उपाधि दी है। उसने उत्तरी भारत (आर्यावर्त) के 9 राजाओं एवं दक्षिणापथ के 12 शासकों को पराजित किया।
- अपनी विजयों के उपरांत समुद्रगुप्त ने अश्वमेध यज्ञ किया, जिसकी जानकारी उसके सिक्कों एवं परवर्ती अभिलेखों से मिलती है।
- समुद्रगुप्त एक असाधारण सैनिक योग्यता वाला उच्चकोटि का विद्वान तथा विद्या का उदार संरक्षक था। उसे कविराज भी कहा गया है।
- समुद्रगुप्त एक महान संगीतज्ञ था जिसे वीणावादन का शौक था।
- एक सिक्के पर उसे वीणा बजाते हुए दिखाया गया है।
- इसने प्रसिद्ध बौद्ध विद्वान वसुबन्धु को अपना मंत्री नियुक्त किया था।
- काव्यालंकार सूत्र में समुद्रगुप्त का नाम चन्द्रप्रकाश मिलता है।
- समुद्रगुप्त ने एक विशाल साम्राज्य का निर्माण किया जो उत्तर में हिमालय से लेकर दक्षिण में विन्ध्य पर्वत तक तथा पूर्व में बंगाल की खाड़ी से पश्चिम में पूर्वी मालवा तक विस्तृत था।
चन्द्रगुप्त द्वितीय ‘विक्रमादित्य‘ (380-412 ई.)
- समुद्रगुप्त के पश्चात गुप्त वंशावली में चन्द्रगुप्त द्वितीय का नाम उल्लेखित है, हालाँकि इन दोनों शासकों के बीच रामगुप्त नामक एक दुर्बल शासक के अस्तित्व का भी पता चलता है।
- चन्द्रगुप्त द्वितीय का अन्य नाम देव, देवगुप्त, देवराज, देवश्री आदि हैं।
- उसने विक्रमादित्य, विक्रमांक, परम भागवत आदि उपाधियाँ धारण की।
- उसने नागवंश, वकाटक और कदम्ब राजवंश के साथ वैवाहिक संबंध स्थापित किए।
- चन्द्रगुप्त द्वितीय ने नाग राजकुमारी कुबेर नाग के साथ विवाह किया जिससे एक कन्या प्रभावती गुप्त पैदा हुई।
- चन्द्रगुप्त द्वितीय ने 389 ई. में शकराज रूद्रसिंह तृतीय पर विजय प्राप्त करने के उपरान्त विक्रमादित्य की उपाधि धारण की और रजत मुद्राएं जारी की।
- देवीचन्द्रगुप्तम् (विशाखदत्त) एवं हर्षचरित में चन्द्रगुप्त द्वितीय को शकारि कहा गया है। ऐसा शकों पर विजय प्राप्त करने के उपलक्ष्य में कहा गया।
- वाकाटकों का सहयोग पाने के लिए चन्द्रगुप्त ने अपनी पुत्री प्रभावती गुप्त का विवाह वाकाटक नरेश रूद्रसेन द्वितीय के साथ कर दिया।
- उसने प्रभावती गुप्त के सहयोग से गुजरात और काठियावाड़ पर विजय प्राप्त की।
- चन्द्रगुप्त द्वितीय के समय में ही फाह्यान नामक चीनी यात्री (399 ई से 414 ई) भारत आया था।
- फाह्यान का यात्रा वृतांत फो-क्यो-की में गुप्तकालीन भारतीय संस्कृति का सुन्दर वर्णन मिलता है।
- समुद्रगुप्त की मृत्यु के पश्चात् अनेक गणराज्यों द्वारा अपनी स्वतंत्रता घोषित कर दी गई थी। तत्पश्चात् चन्द्रगुप्त द्वितीय द्वारा इन गणराज्यों को पुनः विजित कर गुप्त साम्राज्य के अधीन कर लिया गया।
- अपनी विजयों के परिणामस्वरूप चन्द्रगुप्त द्वितीय ने एक विशाल साम्राज्य की स्थापना की।
- उसका साम्राज्य पश्चिम में गुजरात से लेकर पूर्व में बंगाल तक तथा उत्तर में हिमालय से दक्षिण में नर्मदा नदी तक विस्तृत था।
- चन्द्रगुप्त द्वितीय के शासनकाल में उसकी प्रथम राजधानी पाटलिपुत्र और द्वितीय राजधानी उज्जयिनी थी।
- चन्द्रगुप्त द्वितीय का काल कला एवं साहित्य का स्वर्ण युग कहा जाता है। उसके दरबार में नवरत्नों की एक मंडली होती थी, जिसमें विभिन्न विधाओं के विशेषज्ञ शामिल थे।
चंद्रगुप्त द्वितीय के नवरत्न
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1. धन्वन्तरि
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नवरत्नों में इनका स्थान सर्वोपरि था। ये एक प्रसिद्ध वैद्य थे। इनके रचित नौ ग्रंथ पाये जाते हैं। वे सभी आयुर्वेद चिकित्सा शास्त्र से संबंधित हैं। रोगनिदान, वैद्य चिंतामणि, विद्याप्रकाश चिकित्सा, धन्वंतरि निघण्टु, वैद्यक भास्करोदय तथा चिकित्सा सार संग्रह इनकी प्रमुख रचनाएं हैं। चिकित्सा में ये बड़े सिद्धहस्त थे। इनका काम था युद्ध में घायल सैनिकों की शल्य चिकित्सा देना। ये ‘सुश्श्रुतसंहिता’ के रचयिता सुश्रुत के गुरु भी थे।
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2. क्षपणक
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ये एक संन्यासी थे। इन्होंने कुछ ग्रंथ लिखे जिनमें ‘भिक्षाटन’ ही उपलब्ध बताया जाता है।
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3. अमरसिंह
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ये प्रकाण्ड विद्वान थे। इनका प्रमुख ग्रन्थ ‘अमरकोश’ है। इसे विश्व का पहला समान्तर कोश माना जाता है। इस कोश में करीब दस हजार नाम हैं।
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4. शंकु
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इनका पूरा नाम ‘शंकुक’ है। इनका एक ही काव्य-ग्रन्थ ‘भुवनाभ्युदयम्’ बहुत प्रसिद्ध रहा है। इनको संस्कृत का प्रकाण्ड विद्वान माना गया है।
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5. वेतालभट्ट
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विक्रम और वेताल की कहानी जगतप्रसिद्ध है। ये ‘वेताल पंचविंशति’ के रचयिता थे। ‘वेताल पच्चीसी’ से ही यह सिद्ध होता है कि राजा विक्रमादित्य के वर्चस्व से वेतालभट्ट कितने प्रभावित थे। इन्होंने विक्रम वेताल के माध्यम से विक्रमादित्य के साहस और पराक्रम को कथाओं में पिरोया है।
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6. घटखर्पर
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ये विक्रमादित्य के नवरत्नों में संस्कृत के ज्ञाता थे। ये संस्कृत के ‘यमक’ और ‘अनुप्रास’ के विशेष ज्ञाता थे। इनकी रचना का नाम ‘घटखर्पर काव्यम्’ है। इनका दूसरा ग्रन्थ ‘नीतिसार’ है।
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7. कालिदास
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ऐसा माना जाता है कि कालिदास सम्राट विक्रमादित्य के प्राणप्रिय कवि थे। उन्होंने भी अपने ग्रन्थों में विक्रम के व्यक्तित्व का उज्जवल स्वरूप निरूपित किया है। वह न केवल अपने समय के अप्रितम साहित्यकार थे अपितु आज तक भी कोई उन जैसा अप्रितम साहित्यकार उत्पन्न नहीं हुआ है। उनके चार काव्य और तीन नाटक काफी प्रसिद्ध हैं। अभिज्ञानशाकुन्तलम् उनकी सर्वोत्कृष्ट रचना मानी जाती है।
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8. वराहमिहिर
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ये प्राचीन भारत के एक प्रसिद्ध गणितज्ञ और खगोलशास्त्री थे। इन्होंने अनेक ग्रन्थों का प्रणयन किया है। इनमें सूर्यसिद्धांत, बृहज्जातक, वृहत्संहिता, पंचसिद्धातिंका, विवाह पटल, लघुजातक, ‘योग यात्रा’ आदि मुख्य रचनाएं हैं।
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9. वररुचि
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कालिदास की भांति ही वररुचि भी अन्यतम काव्यकर्ताओं में गिने जाते हैं। पत्रकौमुदी, सदुक्तिकर्णामृत, सुभाषितावलि इनकी प्रमुख रचनाओं में गिनी जाती हैं।
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नोटः चंद्रगुप्त द्वितीय के नवरत्नों के अलावा इतिहास में सम्राट अकबर के नवरत्न और शिवाजी के अष्टप्रधान तथा कृष्णदेव राय के अष्टदिग्गज के नाम से विशेष कैबिनेट रखने की चर्चा मिलती है। वर्तमान संदर्भ में ‘किचन कैबिनेट’ अथवा ‘कैचिनेट सरकार’ के अंदर जो होता है, वह उस समय के नवरत्नों जैसा ही है।
कुमारगुप्त प्रथम (415-454 ई.)
- चन्द्रगुप्त द्वितीय के पश्चात् उसका पुत्र कुमारगुप्त प्रथम सिंहासन पर बैठा।
- वह चन्द्रगुप्त द्वितीय की पत्नी ध्रुव देवी से उत्पन्न सबसे बड़ा पुत्र था, जबकि गोविन्दगुप्त उसका छोटा भाई था।
- कुमारगुप्त के शासन का वर्णन उसके मंदसौर अभिलेख (मध्य प्रदेश) से मिलता है जिसकी रचना वत्सभट्टि ने की थी। इसे यशोधर्मन का विजय स्तंभ भी कहा जाता है।
- कुमारगुप्त प्रथम का शासन शान्ति और सुव्यवस्था का काल था।
- साम्राज्य की उन्नति पराकाष्ठा पर थी। गुप्त सेना ने पुष्यमित्रों को बुरी तरह परास्त किया था।
- कुमारगुप्त ने अपने विशाल साम्राज्य की पूरी तरह रक्षा की जो उत्तर में हिमालय से दक्षिण में नर्मदा तक तथा पूर्व में बंगाल की खाड़ी से लेकर पश्चिम में अरब सागर तक विस्तृत था।
- कुमारगुप्त प्रथम के अभिलेखों या मुद्राओं से ज्ञात होता है कि उसने महेन्द्र कुमार, श्रीमहेन्द्र, व महेन्द्रादित्य आदि उपाधियाँ धारण की थी।
- कुमारगुप्त प्रथम स्वयं वैष्णव धर्मानुयायी था, किन्तु उसने धार्मिक सहिष्णुता की नीति का पालन किया। कुमारगुप्त के सिक्कों से पता चलता है कि उसने अश्वमेघ यज्ञ किया था।
- गुप्त शासकों में सर्वाधिक अभिलेख कुमारगुप्त के ही प्राप्त हुए हैं।
- इसने अधिकाधिक संख्या में मयूर आकृति की रजत मुद्राएं प्रचलित की थी।
- कुमारगुप्त प्रथम के शासनकाल में ही दुनिया के प्राचीनतम विश्वविद्यालयों में एक नालन्दा विश्वविद्यालय की स्थापना की गई थी, जिसमें विभिन्न विषयों के दस हजार से अधिक छात्र अध्ययन करते थे।
- नालन्दा विश्वविद्यालय में एक विशाल पुस्तकालय था जिसके प्रमुख भाग – रत्नरंजक, रत्नसागर, रत्नोदधि थे। इसे ऑक्सफोर्ड ऑफ महायान बौद्ध भी कहा जाता है।
स्कन्दगुप्त (455 ई.-467 ई.)
- शुंगवंशियों पुष्यमित्रों के आक्रमण के समय ही गुप्त शासक कुमारगुप्त प्रथम की 455 ई. में मृत्यु हो गई थी।
- उसकी मृत्यु के बाद उसका पुत्र स्कन्दगुप्त सिंहासन पर बैठा।
- स्कंदगुप्त ने सर्वप्रथम अपने शत्रु शुंगों एवं हूणों पर विजय प्राप्त की और आक्रमणकारी मध्य एशियाई हूणों को देश से बाहर खदेड़ दिया।
- स्कंदगुप्त अत्यंत लोकोपकारी, प्रजाहितैषी एवं लोकप्रिय शासक था। उसने 12 वर्ष तक शासन किया। स्कन्दगुप्त ने भी विक्रमादित्य, क्रमादित्य आदि उपाधियाँ धारण की थी।
- हूणों का प्रथम आक्रमण स्कन्दगुप्त के काल में ही हुआ था।
- स्कंदगुप्त के जूनागढ़ अभिलेख के अनुसार हूणों को म्लेच्छ कहा गया है।
- स्कन्दगुप्त ने हूणों के आक्रमण से रक्षा कर अपनी संस्कृति को नष्ट होने से बचाया।
- अपने शासन के अंतिम दिनों में प्रशासनिक सुविधा के दृष्टिकोण से स्कंदगुप्त ने अपनी राजधानी अयोध्या स्थानांतरित किया था।
- गुप्त वंश का अंतिम शासक भानुगुप्त था। इसके शासनकाल में सत्ती प्रथा का पहला साक्ष्य एरण अभिलेख (510 ई. सागर, मध्य प्रदेश) से मिलता है। इसमें गोपराज नामक सेनापति की स्त्री के सती होने का उल्लेख मिलता है।
- गुप्त काल में सती प्रथा विशेषतः सैनिक जातियों में प्रचलन में थी।
- सुल्तानगंज (भागलपुर) में काँसे से निर्मित 2 मीटर ऊँची भगवान बुद्ध की प्रतिमा गुप्तकालीन है। सुल्तानगंज का अजगैबीनाथ मंदिर तथा कहलगांव के समीप स्थित गुहाएं भी गुप्तकाल में निर्मित हैं।
- फाह्यान के वर्णन से ज्ञात होता है कि गुप्तकालीन समाज में शुद्रों से भिन्न अस्पृश्य वर्ग था। इन्हें अंत्यज तथा चाण्डाल कहा गया है।
गुप्तकाल में कला का विकास
- कला के क्षेत्र में गुप्तकाल अपनी उत्कृष्टता की चरम सीमा पर पहुंच गया।
- इस काल के मंदिर वास्तुकला के सर्वोत्तम उदाहरण हैं। इसमें शिखरयुक्त मंदिर (देवगढ़, झांसी) प्रमुख हैं।
- पवाया का मंदिर, नागोद (खोह) में शिव का मंदिर, शंकरगढ़ का मंदिर (जबलपुर) आदि भी गुप्तकाल के आकर्षक मंदिर हैं।
- गुप्तकाल में चित्रकला भी अपने वैभव, गौरव तथा तकनीक की चरम सीमा पर पहुंच गई।
- अजन्ता की चित्रकारी: अजंता की गुफाएं महाराष्ट्र के औरंगाबाद जिले में स्थित हैं।
- कुल 29 गुफाओं में से गुफा संख्या 16, 17 और 19 गुप्तकाल से संबंधित है।
- गुफा संख्या 16 में मरणासन्न राजकुमारी का चित्र है।
- गुफा संख्या 17 में जातक कथाओं का उल्लेख है। इसमें बुद्ध का यशोधरा से भिक्षा मांगते और यशोधरा द्वारा राहुल को बुद्ध को सौंपते हुए दिखाया गया है।
- इस गुफा में सिंहल के राजदरबार का भी चित्र है।
- बोधगया के महाबोधि मंदिर तथा राजगृह के मनियार मठ का निर्माण गुप्तकाल में हुआ था।
गुप्तकालीन प्रसिद्ध साहित्य एवं साहित्यकार
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साहित्य
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साहित्यकार
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वर्णित विषय
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अभिज्ञानशाकुन्तलम्
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कालिदास
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दुष्यन्त तथा शकुन्तला की प्रेम-कथा
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मालिविकाग्निमित्रम्
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कालिदास
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अग्निमित्र तथा मालविका की प्रेमकथा
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विक्रमोर्वशीयम
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कालिदास
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पुरूरवा एवं उर्वशी की प्रेम कथा
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स्वप्नवासवदत्ता
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भास
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उदयन् तथा वासवदत्ता की कथा
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मुद्राराक्षस
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विशाखदत्त
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चन्द्रगुप्त मौर्य से संबंधित कथा
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देवीचन्द्रगुप्तम्
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विशाखदत्त
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चन्द्रगुप्त व ध्रुवस्वामिनी के विवाह का वर्णन है
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मृच्छकटिकम्
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शुद्रक
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ब्राह्मण चारूदत्त तथा गणिका वसंतसेना की कहानी
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