बिहार में लोक नाट्य
बिहार के कुछ अपने लोकप्रिय लोक नाट्य हैं, जिनका यहां के सांस्कृतिक तथा लोक जीवन में काफी महत्व है। ये लोक नाट्य विभिन्न सांस्कृतिक उत्सवों, मांगलिक कार्यक्रमों आदि अवसरों पर यहां के लोगों द्वारा आयोजित किए जाते हैं। इन नाट्यों में अभिनय, संवाद, कथानक, गीत एवं नृत्य सभी का भरपूर समावेश होता है। ये नाट्य प्रायः रात्रि में ही आयोजित किये जाते हैं। इन्हें प्रस्तुत करने के लिए किसी रंगमंच की आवश्यकता नहीं होती है।
बिहार में प्रचलित लोक नाट्य
विदेशिया
- इसके रचयिता प्रसिद्ध लोक कलाकार भिखारी ठाकुर थे। विदेशिया मुख्यतः लोकनाट्य परंपरा के आधार पर विकसित किया गया है। संस्कृत नाटकों की भांति इस नाट्य में भी मंगलाचरण होता है। इसमें प्रत्येक कलाकार बहुआयामी होते हैं।
- वह नाटक का पात्र तो होता ही है, जरूरत पड़ने पर समय-समय पर मंच निरीक्षण का कार्य भी करता है एवं जगह-जगह पर ढोलक या झांझ बजाने का कार्य भी करता है। इसमें महिलाओं की भूमिका भी पुरुष कलाकारों द्वारा की जाती है।
- विदेशिया में दर्शकों को हंसाने के लिए विदूषक या जंकर भी रहता है, लेकिन वह पारसी थियेटर
की तरह नाटक के प्रमुख पात्र की भूमिका नहीं निभाता है।
- विदेशिया का प्रचलन मुख्यतः भोजपुरी भाषा-भाषी क्षेत्र में अधिक है।
- इसके रचयिता एवं प्रसिद्ध कलाकार भिखारी ठाकुर को भोजपुरी का सेक्सपियर कहा जाता है।
डोमकच
- हास्य-परिहास से परिपूर्ण यह नाटक मुख्य रूप से घर-आंगन परिसर में विशेष अवसरों, पधा- बारात जाने के बाद देर रात्रि में महिलाओं द्वारा आयोजित किया जाता है।
- इस नृत्य को प्रेक्षागृहों में प्रदर्शित नहीं किया जाता है, क्योंकि इसमें मनोविनोद एवं हास-परिहास के लिए अश्लील संवादों, हाव-भावों एवं प्रसंगों का विशेष स्थान रहता है।
- बारात जाने के बाद चोरों के डर से स्त्रियां रातभर जगे रहने के क्रम में ही इस नाट्य का अभिनय करती हैं। इसमें स्त्रियां पुरुष के कपड़े पहनकर अभिनय करती हैं।
जट-जटिन
बिहार के प्रमुख नाट्य सम्थान
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स्थान
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संस्था का नाम
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औरंगाबाद
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नाट्य भारती, एक्टर्स ग्रुप आदि
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गमा
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कला-निधि, शबनम आर्ट्स, ललित कला मंच, नाट्य स्तुति आदि
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सासाराम
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निराला क्लब
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पटना
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रूप्पाक्षर, कला-निकुंज, कला त्रिवेणी, भगिना, प्रयास, अर्पण, अनामिका, प्रांगन, सर्जना, माध्यम, पाटलिपुत्र कला निकुंज, बिहार आर्ट थियेटर, कला संगम, भारतीय जन-नाट्य संघ आदि
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दानापुर
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बहुरूपिया, बहुरंग आदि
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नवादा
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शोभादि रंग संस्था
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आरा
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कामायनी, यवनिका, भोजपुर मंच, युवा-नौति, नदी, नोदय संघ आदि
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छपरा
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मयूर कला केन्द्र, शिवम् सांस्कृतिक मंव, हिन्द कला केन्द्र, इंद्रजाल, मनोरमा सांस्कृतिक दल आदि
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बक्सर
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नवरंग कला मंच
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बिहिया
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भारत नाट्य परिषद
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भागलपुर
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सर्वांना सागर नाट्य परिषद, दिशा, प्रेम आर्ट, आदर्श नाट्य कला केन्द्र, अभिनय कला मंदिर आदि
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जमालपुर
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रॉबर्ट रिक्रिएशन क्लब, उत्सव आदि
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मुजफ्फरपुर
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रंग
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बेगूसराय
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जिला नाट्य परिषद, सरस्वती कला मंदिर आदि
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महनार
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अनना अभिनय, कला परिषद
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सुपौल
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भूमिका, दर्पण कला केन्द्र, सूत्रधार, थियेटरेशिया, मंथल कला परिषद आदि
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- जट को जहां दूल्हे की पोशाक पहनाई जाती है, वहीं जटिन को रंगीन साड़ी और कुमुदनी के फूलों से अधिक आकर्षक ढंग से सजाया जाता है। लगभग पांच-छः हाथ की दूरी पर दोनों दल की स्त्रियां पंक्तिबद्ध होकर आमने-सामने खड़ी रहती हैं।
- अभिनय काल में एक दल गाना गाता हुआ दूसरे दल के पास आता है और पुनः उल्टे पांव लौट जाता है। जट का समूह खड़ा होकर तथा जटिन का समूह पहले खड़ा होकर, फिर झुककर गाता है।
भकुली बंका
- इसे प्रायः ‘जट-जटिन’ के साथ ही सावन से कार्तिक माह तक प्रस्तुत किया जाता है। मगर कहीं-कहीं लोग इसे स्वतंत्र रूप से भी प्रस्तुत करते हैं।
- इसके अभिनय का समय और साज-सज्जा जट-अटिन के समान ही है। अंका, बंका, टिहुली और भकुली इसके प्रमुख पात्र होते हैं।
- इस लोक नाट्य की प्रस्तुति बिल्कुल प्राकृतिक और सहज ढंग से की जाती है, जिसमें ग्रामीण जीवन का प्रभावी प्रतिरूप देखने को मिलता है। इसमें प्रयुक्त उपमा ग्रामीण या क्षेत्रीयता से जुड़ी होती है।
किरतनिया
- यह बिहार का एक भक्तिपूर्ण लोकनाट्य है जिसमें भगवान श्रीकृष्ण की लीलाओं का वर्णन भक्ति गीतों के माध्यम से किया जाता है।
सामा-चकेवा
- सामा-चकेवा नाट्य का आयोजन कार्तिक माह में शुक्ल पक्ष की सप्तमी से पूर्णिमा तक किया जाता है।
- यह नृत्य समूह गान में गाए जाने वाले गीतों में प्रश्नों के उत्तर के माध्यम से पेश किया जाता है। इसमें कुंवारी कन्याओं के द्वारा अभिनय प्रस्तुत किया जाता है।
- इसके पात्र मिट्टी के बने होते हैं। अभिनय गीत एवं नृत्य का अद्भुत समन्वय इस नाट्य में देखने को मिलता है। इसके पात्र स्यामा (सामा) और चकेवा भाई-बहन हैं।
- सतभइया, चुगला, खिड़रिच, बनतीतर, झांसीकुत्ता, वृन्दावन, ऐठला-ऐठली, मुंहटेढ़ी, बटदेखनी, ग्वालिन, हाथी आदि इस नाट्य के अन्य पात्रों में प्रमुख है। लड़कियां कृष्ण-राधा की भांति रास रचाती हैं।
- कृष्ण की बांसुरी बजाती हुई मूर्ति को बीच में रख दिया जाता है तथा इसके चारों ओर गोलाकार घेरे में शेष पात्रों को रखा जाता है और फिर इसके चारों ओर लड़कियां स्वयं नाचती-गाती हैं।
लोक संगीत एवं लोक राग
- बिहार का सांस्कृतिक रीति-रिवाज अति प्राचीन है।
- संगीत का महत्त्व सभी संस्कृतियों में एक निर्णायक स्थान रखता है।
- एक तरफ यह मनोरंजन का साधन है तो दूसरी तरफ सृजनशील प्रवृत्तियों की अभिव्यक्ति का माध्यम भी है।
- 18वीं शताब्दी में मुगल साम्राज्य के पतन के बाद शास्त्रीय संगीत का प्रसार मुगल दरबार से लखनऊ, बनारस एवं पटना तक वृहद रूप से फैला।
- पटना में ख्याल एवं ठुमरी को शैलियों को विशेष लोकप्रियता मिली। इन्हें लोकप्रिय बनाने में लोक गायिकाओं का विशेष सहयोग रहा जिनमें रोशन आरा बेगम, एमाम बंदी एवं रामदासी के नाम उल्लेखनीय हैं।
- प्राचीन संस्कार के कारण ही बिहार में विभिन्न राग लोकप्रिय हैं। उनके प्रचलन के विभिन्न रागों में प्रसिद्ध हैं- नचारी, लगनी, फाग, चैता एवं पूरबी आदि।
राज्य में प्रचलित लोक संगीत एवं लोक राग
चट-जटिन दाम्पत्य जीवन पर आधारित इस लोक नाट्य की प्रस्तुति सावन से लेकर कार्तिक महीने तक चांदनी रात में स्त्रियों के द्वारा की जाती है। इसका प्रचलन लगभग पूरे बिहार में है, परन्तु उत्तर बिहार में स्त्रियों के बीच यह मनोरंजन का प्रमुख साधन है। जट-जटिन की भूमिकाएं मुख्यतः कुंवारी कन्याएं अदा करती है।
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- नचारी रागः इस राग के गीतों के रचयिता 15वीं सदी के कवि विद्यापति थे। इन्होंने इस गीत की रचना भगवान शंकर के प्रार्थना के रूप में की। यह राग इतना महत्त्वपूर्ण था कि अबुल फजल ने भी आइन-ए-अकबरी में इसका वर्णन किया है।
- लगनी गीतः यह गीत भी कवि विद्यापति की रचनाएँ हैं। यह गीत सम्पूर्ण उत्तर भारत में विवाह के शुभ अवसर पर आज भी गाया जाता है।
- फाग या होली: होली बिहार तथा उत्तर प्रदेश का महत्वपूर्ण त्योहार है जहाँ फाग गाना विशेष रूप से प्रचलित है। आधुनिक समय में फगुआ के गीतों की रचना में बेतियाराज के जमींदार महाराजा नवलकिशोर सिंह प्रसिद्ध थे। इनके गीत उत्तर बिहार के पश्चिमी जिलों में जनप्रिय हैं।
- चैताः फाग की तरह चैता भी बिहार की एक अनुपम देन है। लोग फागुन के महीने में फाग गाते हैं और चैत के महीने में चैता। यह मुख्य रूप से पटना तथा राज्य के भोजपुरी भाषा-भाषी जिलों में प्रसिद्ध है।
- पूरबी: पहले इस राग को बिहनी नाम से भी जाना जाता था। पूरबी राग की जन्म भूमि सारण जिला को कहा जाता है। इस राग के उल्लेखनीय केन्द्र हैं-पटना, गया, भोजपुर, दरभंगा, मुंगेर तथा भागलपुर इत्यादि। पटना इस राग का प्रमुख केन्द्र था जहाँ के प्रसिद्ध गायक रजाशाह ने एक नया यंत्र संगीत चलाया था जिसे ताट कहा जाता है। इन्होंने गाने-बजाने के बारे में नगमत असफी नाम की पुस्तक की रचना की थी।
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