बिहार में जनजातीय विद्रोह
बिहार के जनजातीय क्षेत्रों में भी ब्रिटिश सत्ता के विरुद्ध कई चुनौतियाँ संगठित हुई। कुछ ब्रिटिश सत्ता के विस्तार के बीच में तो कुछ इसकी स्थापना के पश्चात्। ब्रिटिश सत्ता का दक्षिण बिहार, जो अब झारखंड में है, के पठारी क्षेत्र (जनजातीय क्षेत्र) में विस्तार 1765 के बाद आरम्भ हुआ। इसके फलस्वरूप स्थानीय जनजातियों में विरोध की भावना जगी। उन्हें अपनी संस्कृति और आर्थिक स्थिति के विनाश की संभावना नजर आने लगी। नव आगंतुकों, जिन्हें ‘दीकू’ कहा गया, के विरुद्ध उनमें विरोधी भावना बनी। जनजातियों ने एक के बाद एक कई विद्रोहों के द्वारा अपने शौर्य, बलिदान एवं राष्ट्र प्रेम का परिचय दिया और समय-समय पर ब्रिटिश साम्राज्य के नींव को हिलाते रहे।
प्रमुख जनजातीय विद्रोह
- नोनिया वितोह ( 1770-1800 ई.): नोनिया विद्रोह बिहार के मुख्य शोरा/सोडा उत्पादक केन्द्र हाजीपुर, तिरहुत, सारण और पूर्णिया में हुआ था।
- तमाड़ विद्रोह (1789-94 ई.): छोटानागपुर के उरांव जनजाति द्वारा जमींदारों और साहूकारों के शोषण के खिलाफ विद्रोह की शुरुआत हुई जो 1794 ई. तक चलता रहा। अंततः इस विद्रोह को अंग्रेजों ने कुचल दिया।
- चेरो विद्रोह (1800-1802 ई): यह विद्रोह पलामू शासक भूषण सिंह के नेतृत्व में पलामू रियासत के लोगों ने किया। अंग्रेजों ने 1802 ई. में भूषण सिंह को पकड़कर फांसी की सजा दे दी।
- कोल विद्रोह (1831-32 ई.): छोटानागपुर क्षेत्र में हुआ यह विद्रोह भारतीय इतिहास का महत्त्वपूर्ण विद्रोह था। वास्तव में यह मुंडों का विद्रोह था जिसमें ‘हो’, उरांव एवं अन्य जनजातियों के लोग शामिल थे। इस विद्रोह का मुख्य कारण भूमि संबंधी असंतोष था। इस विद्रोह के प्रमुख नेता बुद्धो भगत, विन्दराय, सिंगराय एवं सुर्गा मुंडा थे।
- भूमिज विद्रोह (1832-33 ई.): यह विद्रोह वीरभूम के जमींदार गंगा नारायण सिंह के नेतृत्व में किया गया। इस विद्रोह का कारण ब्रिटिश सरकार की शोषणकारी लगान व्यवस्था थी। इसका प्रभाव वीरभूम एवं सिंहभूम दोनों क्षेत्रों में था।
- संथाल विद्रोह (1855-56 ई.): संथाल आदिवासियों का यह विद्रोह भागलपुर जिला के राजमहल के भगनीडीह से 30 जून, 1855 को प्रारंभ हुआ। संथाल विद्रोह का प्रभाव क्षेत्र पश्चिम बंगाल के वर्धमान से लेकर बिहार के भागलपुर तक था। इस विद्रोह के नेता सिद्धो, कान्हू, चाँद और भैरव थे। ये चारों सहोदर भाई थे। इस विद्रोह का दमन कैप्टन एलेक्जेण्डर और लेफ्टिनेंट थॉमसन ने किया था।
-
- संथाल विद्रोह जमींदारों एवं साहूकारों के खिलाफ विद्रोह था। संख्यात्मक रूप से बिहार की सबसे बड़ी अनुसूचित जनजाति संथालों की थी। संथाल विद्रोह का प्रभाव भागलपुर से लेकर राजमहल की पहाड़ी तक विस्तृत था जिसे दामिन-ए-कोह (पहाड़ियाओं का राज) के नाम से जाना जाता है।
- लोटा विद्रोह (1856 ई.): यह विद्रोह 1857 की क्रांति के एक साल पूर्व मुजफ्फरपुर जेल के कैदियों द्वारा लोटा के लिए किया गया था। यहाँ प्रत्येक कैदी को पीतल का लोटा दिया जाता था, लेकिन सरकार ने निर्णय लिया कि पीतल की जगह मिट्टी के बर्तन दिये जाएंगे। इसके बाद वहां के कैदियों ने विद्रोह कर दिया। इसे लोटा विद्रोह के नाम से जाना जाता है।
- मुंडा विद्रोह (1899-1901 ई.): इस आंदोलन का मुख्य प्रवर्तक बिरसा मुंडा था। यह आंदोलन दो चरणों में चला 1858-1895 एवं 1895-1901 तक। बिरसा मुंडा के पहले के विद्रोह को ‘सरदारी लड़ाई’ के नाम से भी जाना जाता है।
-
- मुंडा विद्रोह का मुख्य उद्देश्य आर्थिक, राजनीतिक एवं धार्मिक स्थिति में परिवर्तन एवं पुनरुत्थान लाना था। यह आंदोलन एक सुधारवादी प्रयास के रूप में आरंभ हुआ था।
- बिरसा ने नैतिक आचरण की शुद्धता, आत्मसुधार एवं एकेश्वरवाद का उपदेश दिया। इस आंदोलन के विरुद्ध सरकार ने दमन चक्र चलाया और 3 मार्च, 1900 ई. को चक्रधरपुर में बिरसा को गिरफ्तार कर लिया गया और 2 साल की सजा दे दी गई लेकिन 9 जून, 1900 को रांची कारागार में हैजा रोग के कारण उनकी मृत्यु हो गई, जहां अब बिरसा मुंडा की आदमकद प्रतिमा लगाई गई है।
- बिरसा मुण्डा के अनुयायी उन्हें धरती आबा का अवतार मानते थे।
- वर्तमान में बिहार, झारखण्ड, ओडिशा और पश्चिम बंगाल के आदिवासी इलाकों में बिरसा मुंडा को भगवान की तरह पूजा जाता है।
- बिरसा मुण्डा का जन्म 15 नवम्बर 1875 को उलिहातु गांव में हुआ था।
- बिरसा आंदोलन के समाप्ति बाद 1908 ई. में छोटानागपुर टेनेन्सी एक्ट को लाया गया।
- आंदोलन के बाद आदिवासी की खुदक्ट्री व्यवस्था पुनः लागू किया गया।
- ताना भगत आंदोलन (1914 ई.): इस आंदोलन का शुभारंभ 21 अप्रैल, 1914 ई. को गुमला जिले के विशनपुर प्रखंड के चिंगरी नवाटोली से हुआ था। यह उराँव जनजातियों द्वारा आरंभ किया गया आंदोलन था।
-
- यह आंदोलन अपने शुरुआती चरण में कुरुख धरम (उरांव का मूल धर्म) के नाम से जाना गया।
- इस आंदोलन के प्रमुख नेता जतरा भगत थे। उसने उरांवों में धार्मिक सुधार संबंधी कार्यों पर जोर दिया और सिर्फ धर्मेश (उरांवों के देवता) की आराधना पर बल दिया। साथ ही पशु बलि, मांस-मदिरा एवं कुरीतियों के त्याग पर भी उसने बल दिया।
- जतरा भगत के नेतृत्व में ऐलान हुआ कि मालगुजारी नहीं देंगे, बेगारी नहीं करेंगे और कर नहीं देंगे। उसने दिकुओं (बाहरी लोग) के यहां मजदूरी न करने का अभियान चलाया, जिससे 1916 में उन्हें जेल में कैद कर दिया गया।
- प्रायः आदिवासियों में जतरा भगत को बिरसा मुंडा का ही एक रूप माना जाता है।
- साफाहोड़ आंदोलन का आरंभ 1870 ई. में हुआ था जिसके जन्मदाता बाबा लाल हेम्ब्रम थे। जमींदारों द्वारा कृषकों से मांगे गये बेगार या अवैध उपकर को वेथी नाम से जाना जाता था।
प्रमुख जनजातीय आंदोलन
|
वर्ष
|
आंदोलन
|
नेता
|
1800-1802
|
चेरो विद्रोह
|
भूषण सिंह, शिव प्रसाद सिंह, रामबख्श सिंह
|
1831-1832
|
कोल विद्रोह
|
बुद्धो भगत, विन्दराय, सिंगराय, सुर्गा मुंडा
|
1832-1833
|
भूमिज विद्रोह
|
गंगा नारायण सिंह
|
1855-1856
|
संथाल विद्रोह
|
सिद्ध, कान्हु, चाँद एवं भैरव
|
1874
|
खरवार आंदोलन
|
भागीरथ मांझी
|
1899-1900
|
मुंडा आंदोलन
|
बिरसा मुण्डा
|
1914
|
ताना भगत आंदोलन
|
जतरा भगत
|
|