बिहार में किसान आंदोलन
गाँधीजी का चम्पारण सत्याग्रह
- 30 दिसम्बर, 1916 को कांग्रेस के लखनऊ अधिवेशन में चंपारण के किसान नेता राजकुमार शुक्ल के अनुरोध पर गाँधीजी 10 अप्रैल को पटना और 15 अप्रैल, 1917 को चम्पारण पहुँचे।
- चम्पारण सत्याग्रह आंदोलन में गाँधीजी के प्रमुख सहयोगी थे- राजकुमार शुक्ल, राजेन्द्र प्रसाद, अनुग्रह नारायण सिंह, ब्रज किशोर प्रसाद, धरणीधर, कृष्ण सिंह, रामनौमी प्रसाद, मजहरूल हक, जे.बी. कृपलानी, पोलक, शम्भू शरण, नरसिंह पारेख, महादेव देसाई (बाद में गांधीजी के सचिव बनें), ब्रजकिशोर और शंभुनाथ आदि।
- चम्पारण क्षेत्र में अंग्रेज बगान मालिकों द्वारा तीनकठिया प्रथा लागू की गई थी। इस प्रथा के अन्तर्गत प्रत्येक किसान को अपनी खेती योग्य जमीन के 3/20 भाग अर्थात् एक बीघा में तीन कट्ठा भाग में जमींदार की इच्छानुसार फसल उपजानी होती थी। अगर कोई किसान इससे मुक्त होना चाहता था तो उसके लिए यह आवश्यक था कि वह बागान मालिक को एक बड़ी राशि तवान, सरहवेशी या अववाब के रूप में दे।
- इस प्रथा के द्वारा गोरे निलहे साहब बड़े पैमाने पर नील की खेती इस क्षेत्र में कराते थे।
- 1859-1860 में ही दीनबंधु मित्र ने अपने बंगला नाटक नीलदर्पण में नील उत्पादन की शोषणकारी व्यवस्था का मार्मिक चित्रण किया था।
- नीलदर्पण का अंग्रेजी में अनुवाद बंगला के सुप्रसिद्ध कवि मधुसूदन दत्त ने 1861 में किया था। ‘हिन्दू पैट्रियाट’ के सम्पादक हरीशचन्द्र मुखर्जी ने भी पीड़ित किसानों के पक्ष में लेख लिखे थे।
- निलहे साहबों के अत्याचार के विरुद्ध पहला विद्रोह 1867 ई. में चम्पारण के लाल सुरैया कोठी से आरम्भ होकर मुजफ्फरपुर जिले तक फैल गया था।
- जांच शुरू करने से पहले गांधीजी प्लांटर्स एसोसिएशन के सचिव जे.एम. विल्सन से मिले तथा उन्हें जांच कार्य में सहयोग करने का अनुरोध किया।
- चम्पारण के जिला मजिस्ट्रेड डब्ल्यू.वी. हाईकॉक ने 16 अप्रैल, 1917 को गांधीजी पर जारी अधिसूचना एवं सम्मन के द्वारा उन्हें चम्पारण जिला छोड़ देने का आदेश दिया।
- 1917 ई. का गाँधीजी का चम्पारण सत्याग्रह इसी शोषणकारी प्रथा के उन्मूलन के लिए हुआ था। यह महात्मा गाँधी के भारत में सत्याग्रह का पहला प्रयोग था। इस सत्याग्रह से अंग्रजी हुकूमत को तीनकठिया प्रथा वापस लेना पड़ा और किसानों एवं जनमानस के लिए गांधी
- दैवपुरूष बन गए। यह सत्याग्रह आगे के कई किसान आंदोलनों का शक्तिपूंज बन गया।
- चम्पारण में कृषकों की स्थिति की जांच के लिए एक 6 सदस्यीय जाँच समिति का गठन किया गया जिसका नाम चम्पारण एग्रेरियन समिति दिया गया।
- चम्पारण एग्रेरियन समिति के अध्यक्ष एफ.जी. सलाई (मध्य प्रदेश के आयुक्त) थे जबकि इसके मुख्य सदस्यों में महात्मा गाँधी, एल.सी. अदामी, राजा हरि प्रसाद, नारायण सिंह, डीजे. रीड एवं जी रैनी शामिल थे।
- गाँधीजी ने 14 नवम्बर, 1917 को चम्पारण के बड़हरवा लखनसेन नामक गाँव में पहला स्कूल स्थापित किया।
- इस स्कूल के प्रमुख शिक्षक बम्बई के बवन गोखले एवं उनकी पत्नी अवंतिका बाई गोखले थी।
- गाँधीजी द्वारा चम्पारण में दूसरा स्कूल 20 नवम्बर, 1917 को कस्तुरबा सेवा केन्द्र गाँव में खोला गया।
- भीतिहरवा आश्रम को पूर्व में कस्तुरबा सेवा केन्द्र के नाम से जाना था जो अनुसूचित जाति की बालिकाओं और महिलाओं हेतु शिक्षण केन्द्र के रूप में स्थापित किया गया था।
- बिहार सरकार ने भीतिहरवा आश्रम को ऐतिहासिक स्थल के रूप में स्थापित किया है।
नोट: बिहार में गांधीजी के ‘चंपारण सत्याग्रह’ के 100 वर्ष पूरे होने के उपलक्ष्य में सम्पूर्ण राज्य में सत्याग्रह शताब्दी वर्ष (1917-2017) का आयोजन किया गया। इसके समापन में 21-22 फरवरी, 2018 को प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने नई दिल्ली में स्वच्छाग्रह-बापू को कार्यांजलि-एक अभियान’ प्रदर्शनी का उदघाटन किया था।
चम्पारण सत्याग्रह के बाद के किसान आंदोलन
- चंपारण सत्याग्रह की सफलता ने बाद के किसानों में एक शक्तिपूंज का काम किया।
- 1919 ई. में स्वामी विद्यानंद के नेतृत्व में मधुबनी जिले के किसानों ने दरभंगा राज के खिलाफ आंदोलन किया था।
- बिहार में सर्वप्रथम 1923 ई. में ही मुंगेर में शाह मोहम्मद जुबेर की अध्यक्षता में किसान सभा की स्थापना हो चुकी थी। श्रीकृष्ण सिंह उसके उपाध्यक्ष एवं श्री सिद्धेश्वरी चौधरी तथा नन्दकुमार सिंह सचिव थे।
- 4 मार्च, 1928 को पटना के बिहटा में स्वामी सहजानंद सरस्वती ने किसान सभा की औपचारिक रूप से स्थापना कर, किसान आंदोलन को एक नई दिशा प्रदान किया।
- स्वामी सहजानन्द किसान आंदोलन के मूल अनुप्रेरक बन गए और मरते दम तक यह उनके जीवन का लक्ष्य बना रहा।
- 17 नवम्बर, 1929 को हरिहरक्षेत्र (सोनपुर मेला) में एक सभा में प्रान्तीय किसान सभा की स्थापना की गई। स्वामी सहजानन्द उसके अध्यक्ष बने तथा श्रीकृष्ण सिंह उसके सचिव, श्री यमुना कार्थी, गुरु सहाय लाल और कैलाश लाल उसके प्रमण्डलीय सचिव थे।
- सरदार वल्लभभाई पटेल ने दिसम्बर, 1929 में बिहार की यात्रा की। इससे इस आंदोलन को विशेष बल मिला।
- किसान आंदोलन के अंतर्गत जमींदारों के अत्याचार के विरुद्ध आवाज उठाने के अतिरिक्त
- अन्य मांगें थीं (1) नहर शुल्क में कमी करने, (2) मालगुजारी भुगतान की पक्की रसीद
- देने, (3) बकाश्त भूमि को लौटाना आदि।
- शाहाबाद एवं चम्पारण जिलों में नहर टैक्स के विरुद्ध आंदोलन काफी उग्र था। शाहाबाद जिला कांग्रेस कमेटी ने ‘ नहर टैक्स वसूली की जाँच’ शीर्षक से एक अधिसूचना जारी की।
- इस संबंध में श्रीकृष्ण सिंह, अब्दुल बारी और बलदेव सहाय किसानों की उचित मांगों पर बल देने हेतु शाहाबाद गए।
- दो स्थानीय कांग्रेसी नेताओं गुप्तेश्वर पांडे एवं विंध्याचल के साथ उन्होंने जिला के विभिन्न स्थानों की यात्रा की।
- किसान आंदोलनों एवं कांग्रेस की गतिविधियों को कमजोर करने के लिए अंग्रेजों के समर्थन से बनी बिहार के जमींदार संगठनों ने सितम्बर, 1932 में रांची में यूनाइटेड पॉलिटिकल पार्टी बनाई।
बिहार में किसान सम्मेलन
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प्रथम
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बिहार प्रांतीय किसान सम्मेलन 17 नवम्बर, 1929 ई. में स्वामी सहजानंद सरस्वती की अध्यक्षता में सोनपुर में सम्पन्न हुआ था।
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दूसरा
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सम्मेलन 29-30 अगस्त, 1934 को पुरुषोत्तम दास टंडन की अध्यक्षता में गया में सम्पन्न हुआ। इस सम्मेलन में खान अब्दुल गफ्फार खान ने भी अपने भाई के साथ भाग लिया था।
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तीसरा
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सम्मेलन हाजीपुर में 26-27 नवम्बर, 1935 को स्वामी सहजानंद सरस्वती की अध्यक्षता में सम्पन्न हुआ। इस सम्मेलन में जमींदारी प्रथा हटाने का प्रस्ताव स्वीकृत हुआ।
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- अप्रैल, 1936 में अखिल भारतीय किसान सभा की स्थापना लखनऊ में की गई जिसमें स्वामी सहजानंद सरस्वती को अध्यक्ष एवं प्रो. एन.जी. रंगा को महासचिव बनाया गया।
- किसान सभा के संगठन को बिहार के गाँवों में फैलाने में स्वामी सहजानंद सरस्वती को कार्यानन्द शर्मा, राहुल सांकृत्यायन, पंचानन शर्मा और यदुनंदन शर्मा जैसे बहुत से वामपंथी नेताओं का सहयोग मिला।
- यदुनदन शर्मा के नेतृत्व में 1931 में गया में किसान आंदोलन हुआ। दरभंगा के क्षेत्रों में 1931 में किसान आंदोलन हुआ। दरभंगा के क्षेत्रों व सारण में किसानों का नेतृत्व यमुना कार्यों ने किया, जबकि अन्नवारी क्षेत्र में किसानों के नेता राहुल सांकृत्यान थे।
- बिहार प्रांतीय किसान सभा ने सभाओं, सम्मेलनों और प्रदर्शनों का भी आयोजन किया। 1935 ई. में किसान सभा द्वारा जमींदारी उन्मूलन का प्रस्ताव पारित किया जा चुका था।
- इसी वजह से चम्पारण, सारण और मुंगेर जिला कांग्रेस समिति ने अपने सदस्यगणों को किसान सभा के जुलूस में भाग लेने से मना कर दिया। इस परिस्थिति के बाद किसानों ने प्रत्यक्ष कार्रवाई का रास्ता शुरू किया।
- नवम्बर, 1935 में मोकामा क्षेत्र के बड़हिया टाल इलाकों के किसानों द्वारा जमींदारी उन्मूलन तथा बकाश्त भूमि की वापसी की मांग को लेकर एक बड़ा आंदोलन शुरू किया गया। इस आंदोलन में कार्यानंद शर्मा की भूमिका काफी महत्त्वपूर्ण थी।
- बकाश्त भूमि उसे कहते थे जिसे मंदी या प्राकृतिक आपदा के कारण लगान न दे पाने की स्थिति में किसानों ने जमींदारों को दे दी थी।
- 1938 ई. में पटना में एक बड़ी किसान रैली हुई, जिसमें एक लाख किसानों ने हिस्सा लिया।
- गया जिले के रेवड़ में यदुनंदन शर्मा के नेतृत्व में किसान मजिस्ट्रेट से यह घोषणा कराने में सफल रहे कि विवादास्पद 850 बीघा जमीन काश्तकारों को लौटा दी जाएगी।
- फरवरी, 1939 में राहुल सांकृत्यायन ने सारण जिला के अमबारी स्थान पर बकाश्त सत्याग्रह शुरू किया।
- स्वामी सहजानन्द सरस्वती ‘हुंकार’ पत्रिका के माध्यम से किसानों में जागरूकता फैलाते रहे।
- अप्रैल, 1939 में आचार्य नरेन्द्र देव की अध्यक्षता में गया में अखिल भारतीय किसान सम्मेलन का वार्षिक अधिवेशन हुआ।
नोटः ब्रिटिश सरकार का बिहार में ‘भू-राजस्व’ के बाद अफीम दूसरा सबसे बड़ा आय का साधन था।
बिहार के किसानों से जुड़ी प्रथाएं
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खुटकट्टी प्रथा
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यह मुंडा जनजातियों में प्रचलित सामूहिक भू-स्वामित्व की व्यवस्था थी। अंग्रेजी शासन द्वारा इस प्रथा में हस्तक्षेप के कारण मुंडा विद्रोह हुआ।
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कमियौटी प्रथा
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बिहार एवं उड़ीसा में प्रचलित इस प्रथा के अन्तर्गत कृषि दास के रूप में खेती करने वाले कमिया जाति के लोग अपने मालिकों द्वारा प्राप्त ऋण पर दी जाने वाली ब्याज की राशि के बदले जीवन भर उनकी सेवा करते थे।
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तीनकठिया प्रथा
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चम्पारण क्षेत्र में अंग्रेज बगान मालिकों द्वारा इस प्रथा को लागू किया गया। इस प्रथा के अंतर्गत प्रत्येक किसान को अपनी खेती योग्य जमीन के 15% (एक बीघा में तीन कट्ठा) भाग में नील की खेती करनी पड़ती थी।
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